पंछी
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पंछी
देखा है अक्सर पक्षियों को सांझ होते ही लौटना
कितने ही दाने बिखेरो तब वह नहीं रुकता ।
कोई भी लालच उसका लौटना विस्मृत नहीं कर पाता
चोंच व पंखो में कुछ दाने समेटने की जुगत भी नहीं करता
सब संग्रह छोड़ बस आज पर ही जीता है ।
अपने बच्चों को भी बड़ा कर पुष्ट कर उड़ने देता है
अनन्त गगन में अपनी यात्रा के विस्तार को।
नहीं बांधता अपने घरौंदों से उन्हें
न ही अपनी आकांक्षाओं का भार उनके पंखो पर डालता है
शायद तभी वो इतना ऊँचा आकाश नाप लेता है ।