न पणिहारिन नजर आई
नजारा देहात का.
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न पनिहारिन नजर आई,
न पनघट ही नजर आया ।
न अब चौपाल पर मुझको,
वो जमघट ही नजर आया ।।
छिपा लेती थी महिलाएं,
कभी जो शर्म से चेहरा ।
न अब सिर पर मुझे उनके,
वो घूंघट ही नजर आया ।।
खिलाती थी कभी अम्मा,
दही मथ कर मुझे मक्खन।
न अब मुझको रसोई में,
वो मंथनघट नजर आया।।
बजाते थे जिसे मिलकर,
कभी जो प्यार से सारे ।
न अब देहात में मुझको
वो अभिघट ही नजर आया।।
सुकून मिलता था मुर्दे को,
नदी के तट शिवाले पर।
नही अब गांव में मुझको,
वो मरघट ही नजर आया।
रमेश शर्मा.