‘नज़रों का रुख’
न जाने नज़रें, तेरी नज्मों का रुख़ क्यों करती हैं?
कि हर नज़्म तेरी बेरहमी से मेरा कत्ल करती हैं।
हर हर्फ़ बिखर जाता है दिल में दर्द बनकरके यूँ,
कि साँसे निकलती नहीं बस आहें भरा करती हैं
न जाने नज़रें, तेरी नज्मों का रुख़ क्यों करती हैं?
कि हर नज़्म तेरी बेरहमी से मेरा कत्ल करती हैं।
हर हर्फ़ बिखर जाता है दिल में दर्द बनकरके यूँ,
कि साँसे निकलती नहीं बस आहें भरा करती हैं