नेह
वासना लिपटी हुई है नेह में।
ढूंढते हो क्या न जाने देह में।
है वचन झूठा तुम्हारे प्रेम का-
मर रही मैं आँसुओं के गेह में। ‘सूर्य’
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य’
वासना लिपटी हुई है नेह में।
ढूंढते हो क्या न जाने देह में।
है वचन झूठा तुम्हारे प्रेम का-
मर रही मैं आँसुओं के गेह में। ‘सूर्य’
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य’