निर्भीक निवासिने
किसी शाम को जब वो बहू अपनी सास को मुझे दिखा के चलने लगी तो मैने यूँ ही पूँछ लिया
‘ आप कहां रहती हैं ? ‘
वो थाने का नाम लेते हुए बोलीं
‘ फलां थाने के ठीक पीछे , यों समझें कि थाने की दीवार हमारे घर से सटी हुई है । ‘
मैंने कुछ संकोच प्रदर्षित करते हुए उनसे पूंछा
‘ तब तो आप लोगों को कोई डर नहीं लगता हो गा ।’
मेरे प्रश्न पर वो खिलखिला कर हंस पड़ीं ,
और बोलीं
‘ अरे साहब हमें डर कैसा , डरते तो पुलिस वाले हैं – जब पत्थर पड़ते हैं तो थाने वाले सबसे पहले वही लोग थाना छोड़ कर भाग जाते हैं , पत्थर हमारे घर में गिरते रहते हैं हमलोग चिल्लाते हैं , 100 no. को फोन लगाते हैं , कुछ नहीं होता , फिर थाने जा कर देखते हैं तो थाना खाली मिलता है । फिर कुछ देर बाद दूसरी वर्दी वाली पुलीस ( ? RAF ) आती है तो पत्थर रुकते हैं ।’
मैं हथप्रभ भाव से उनका मेरे कक्ष से बहिर्गमन निहारता रहा , उनका निर्भीक आत्मविश्वास मेरे संशय युक्त भय पर भारी पड़ रहा था ।