निर्भय के बाद आगे क्या…
निर्भया के बाद आगे क्या..
#पण्डितपीकेतिवारी
“इंसाफ़ मिला तो सही पर देरी से जो आसान नहीं
इतने गहरे जख्मों का समय पर समाधान नहीं
सात साल जो माँ तड़फी कोर्ट कचहरी गलियारों में
वेशकीमती समय गंवाया उन हत्यारों की मनुहारों में”
दिल्ली की सड़कों पर करीब सात साल पहले निर्भया के साथ दरिंदगी करनेवाले चारों दोषियों को फांसी दे दी गई है। तमाम कानूनी अड़चनों के बाद जब फांसी का रास्ता साफ हुआ और दिल्ली की तिहाड़ जेल में सुबह ५.३० बजे फांसी दी गई। सूली पर चढ़ाना जेल अधिकारियों के लिए तो आसान था, पर चढ़ना दोषियों के लिए बड़ा मुश्किल हुआ? फांसी के तख्त को देखकर ही चारों चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगे। अधिकारियों के पैरों में लिपट गए। दोषियों के मुंह से सिर्फ दो ही शब्द निकल रहे थे। बचा लो-बचा लो, छोड़ दो-छोड़ दो। दोषी विनय बार-बार कह रहा था कि मुझे फांसी मत दो और फांसी से बचने के लिए जमीन पर लेट गया। इसके बाद जेलर के आदेश पर जल्लाद पवन खुद दोषी विनय को घसीटते हुए फांसी के फंदे तक लेकर आया। इसके बाद चारों दोषियों को एक साथ फांसी पर लटकाया गया।
बता दें कि दिल्ली की सड़कों पर करीब सात साल पहले निर्भया के साथ दरिंदगी करनेवाले चारों दोषियों को फांसी दे दी गई है। तिहाड़ के बाहर सुरक्षा कड़ी करते हुए अर्द्धसैनिक बल के जवानों को भी तैनात किया गया। फांसी देने से पहले तिहाड़ जेल के कई अधिकारी फांसी घर के पास पहुंचे, जिनकी निगरानी में फांसी की प्रक्रिया पूरी हुई। फंदे पर लटकाने से पहले जब दोषियों को नहाने और कपड़े बदलने के लिए कहा गया तो दोषी विनय ने कपड़े बदलने से इंकार कर दिया। इसके अलावा उसने रोना शुरू कर दिया और माफी मांगने लगा। दोषियों को फांसी दिए जाने से पहले तिहाड़ जेल के बाहर भीड़ जुटी। दिल्ली के स्थानीय लोग, कुछ एक्टिविस्ट फांसी से पहले जेल के बाहर खड़े रहे और २० मार्च के इस दिन को निर्भया के लिए सच्ची श्रद्धांजलि वाला बताया। दोषियों के फांसी पर लटकाए जाने के बाद यहां पर कई लोगों ने जश्न भी मनाया और मिठाई भी बांटी। तिहाड़ जेल के फांसी घर में शुक्रवार सुबह ठीक ५.३० बजे निर्भया के चारों दोषियों को फांसी दी गई। निर्भया के चारों दोषियों विनय, अक्षय, मुकेश और पवन गुप्ता को एक साथ फांसी के फंदे पर लटकाया गया, बाद में पोस्टमार्टम किया गया।
बेटी को मिला इंसाफ-निर्भया की मां
निर्भया केस के चारों दोषियों को आज सुबह फांसी पर चढ़ा दिया गया। ७ साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद निर्भया के माता-पिता अपनी बेटी को इंसाफ दिलाने में कामयाब हुए। फांसी के बाद मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा कि ये लड़ाई सिर्फ निर्भया की नहीं, बल्कि देश की सभी बच्चियों के लिए थी।
दो जल्लादों की थी जरूरत
कोर्ट द्वारा सभी दोषियों को एक साथ फांसी पर लटकाने का आदेश हुआ था। तिहाड़ जेल नंबर-३ में बने फांसी घर में दो तख्त बनाए गए और दोनों के हैंगर व लीवर अलग-अलग दिशा में थे। दोनों को एक साथ खींचने के लिए दो जल्लाद चाहिए थे लेकिन जल्लाद एक ही था। फांसी तय समय पर देनी थी। इसलिए एक जल्लाद का काम जेलकर्मी ने किया। एक लीवर को जल्लाद पवन ने खींचा और दूसरे का लीवर जेलकर्मी ने। चारों को फांसी पर लटकाने के लिए ६० हजार रुपए का मेहनताना तय हुआ था। जो दोनों में बंटना था। पर जेलकर्मी ने लेने से मना कर दिया, उसके बाद उसके हिस्से का भी पैसा पवन को मिला।
निर्भया के डॉक्टर बोले जीना चाहती थी बच्ची
वह बहुत ही जीवट व्यक्तित्व वाली बच्ची थी। इतने दर्द के बाद भी वह जीना चाहती थी। अपनी आंखों के सामने इन दरिंदों को सजा दिलाना चाहती थी। जीने के प्रति उसकी इच्छाशक्ति जबरदस्त थी। वह अपनी पीड़ा के बाद भी मुस्कुरा कर जवाब देती थी, मैं उस बच्ची के जज्बे को सलाम करता हूं। यह कहना है कि निर्भया का इलाज करनेवाले एम्स के पूर्व डायरेक्टर डॉक्टर एमसी मिश्रा का। उन्होंने कहा कि अगर कहीं आत्मा है तो आज उस बच्ची को जरूर सुकून मिल रहा होगा। साल २०१२ में जब निर्भया रेप की यह घटना हुई थी, उस समय डॉक्टर मिश्रा एम्स ट्रॉमा सेंटर के प्रमुख हुआ करते थे। निर्भया का इलाज सफदरजंग अस्पताल में चल रहा था, लेकिन ट्रॉमा केयर के एक्सपर्ट होने के नाते डॉक्टर मिश्रा को निर्भया के इलाज में स्पेशल तैनाती की गई थी।
कहां है छठा नाबालिग दोषी?
निर्भया के चार दोषियों (पवन, विनय, मुकेश, अक्षय) को उनके किए की सजा मिल गई। लेकिन क्या आपको याद है इस केस में दो दोषी और थे, एक राम सिंह, जिसकी जेल में ही मौत हो गई। दूसरा वह जिसे सबसे ज्यादा दरिंदगी करने के बावजूद छोड़ना पड़ा, क्योंकि वह उस वक्त नाबालिग था। निर्भया का यह दोषी वैâसा दिखता है? यह कोई नहीं जानता। यह इकलौता था जिसकी कोई तस्वीर सामने नहीं आई। निर्भया के नाबालिग दोषी को पुलिस प्रशासन ने नया नाम देकर साउथ इंडिया भेज दिया था। अब वह वहां कुक का काम करता था। खाना बनाने की कला उसने जुवेनाइल जेल में रहने के दौरान ही सीखी थी। पुलिस अधिकारी ने उस वक्त इस बारे में बताया था कि नाबालिग दोषी को दिल्ली से बहुत दूर भेज दिया गया गया। वारदात के वक्त नाबालिग होने के कारण उसे जुवेनाइल कोर्ट से ३ साल की ही सजा हुई थी। फिलहाल वो आजाद है। लेकिन अब कहां है यह साफ नहीं है?
घटनाक्रम
१- गुरुवार दोपहर को पटियाला हाउस कोर्ट से डेथ वारंट को खारिज करने की याचिका को रद्द कर दिया गया। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने भी मुकेश सिंह की याचिका को खारिज कर दिया था, जिसके बाद फांसी का रास्ता साफ हुआ।
२- शाम होते-होते निर्भया के दोषियों के वकील एपी सिंह ने पटियाला हाउस कोर्ट के पैâसले के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट का रुख किया। जिसके बाद हाईकोर्ट ने रात को नौ बजे इस मामले पर सुनवाई शुरू की।
३- दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान वकील एपी सिंह की ओर से डेथ वॉरंट को टालने की अपील की गई लेकिन अदालत ने कहा कि उनके पास कोई कानूनी दलील नहीं है जिस पर ये पैâसला हो सके।
४- हाईकोर्ट में वकील एपी सिंह ने कहा कि कोरोना वायरस के चलते कई जगह कोर्ट बंद हैं, इसलिए उनकी याचिकाएं नहीं सुनी जा रही हैं। एपी सिंह ने अंतरराष्ट्रीय कोर्ट में भी याचिका दायर की थी लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने इन तथ्यों को डेथ वॉरंट रोकने के लिए काफी नहीं माना।
५- देर रात १२ बजे दिल्ली हाईकोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया और फांसी के आदेश का पालन करने को कहा। इस पैâसले के तुरंत बाद एपी सिंह ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
६- रात को करीब एक बजे एपी सिंह सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार के घर पहुंचे और उनकी याचिका पर तुरंत सुनवाई की अपील की। इस दौरान उन्होंने आरोप लगाया कि दिल्ली हाईकोर्ट के पैâसले की कॉपी उन्हें नहीं मिल रही है ताकि सुनवाई होने में देरी हो सके।
७- रात को करीब ढाई बजे सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस भानुमति की अगुवाई में तीन जजों की बेंच ने इस मामले को सुना। ऐसा तीसरी बार ही हुआ है, जब सुप्रीम कोर्ट किसी मामले को सुनने के लिए आधी रात को बैठी हो।
८- एपी सिंह ने दिल्ली हाईकोर्ट की तरह ही सुप्रीम कोर्ट में कमजोर दलीलें दीं। कोरोना वायरस का बहाना बनाकर कई कोर्ट में याचिकाओं के होने का हवाला दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों को खारिज कर दिया।
९- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपके पास ऐसे कोई कानूनी तर्क नहीं हैं, जिससे ये राष्ट्रपति के द्वारा खारिज की गई दया याचिका पर सवाल खड़े किए जा सकें। इसी के बाद अदालत ने करीब साढ़े तीन बजे याचिका को खारिज कर दिया।
निर्भया के चारों दोषियों को फांसी की सजा मिल गयी या कहो एक माँ को वर्षों इंतजार करने के बाद इंसाफ मिल गया. यह एक ऐसा मामला था जिसनें देश की सामूहिक चेतना को चोटिल किया था. इस कारण मैं इस न्याय से खुश हूँ पर पूर्णत्या आश्वस्त नहीं हूँ कि अब आगे ऐसा नहीं होगा! यह सच है कि निर्भया के साथ हुए इस जघन्य अपराध के बाद लोगों ने आन्दोलन धरने प्रदर्शन करके सरकारों को चेताया था. एक लम्बे कालखंड के बाद अब न्यायपालिका ने अपनी जिम्मेदारी भी निभाई लेकिन अब समाज के सामने भी जिम्मेदारी निभाने का वक्त है.
देखा जाएँ तो अरुणा शानबाग से लेकर शाहबानों तक अनेकों फैसले आये, लेकिन हमें सोचना यह भी होगा कि उन फैसलों का समाज पर उनकी सोच पर कितना प्रभाव पड़ा! बेशक आज निर्भया के दोषियों को सजा मिली लेकिन न्यायपालिका का यह फैसला तभी सफल होगा जब लोग इस से सबक लेंगे और ऐसे मामलों में कमी आएगी. क्योंकि बलात्कार केवल कानून से जुड़ा मसलाभर नहीं है. समाज का दायित्व सब से बड़ा है. सब से जरूरी है कि समाज से उस मानसिकता को खत्म किया जाए जिस के कारण बलात्कार जैसे कांड होते हैं. मात्र कानून से इस सामाजिक बुराई और अपराध की प्रवत्ति को खत्म नहीं किया जा सकता.
कल्पना कीजिये सामूहिक बलात्कार इसके बाद हत्या… यानि पांच सात मिलकर किसी जघन्य अपराध को जन्म देते है और कितनी विडम्बना की बात है कि ऐसे मौके पर किसी एक भी अपराधी की चेतना जाग्रत नही होती? कोई एक तो इसका विरोध करें, आपस में मतभेद हो कि यह गलत है और हमें ऐसा नहीं करना चाहिए. इसके विपरीत एक मानसिकता दिखाई देती है जैसे कुछ बंट रहा हो और सभी अपना हिस्सा लूट खसोट रहे हो? यानि ऐसे ज्यादातर मामले सबक सिखाने जैसी प्रवृत्ति को भी दिखाते हैं. कौन भूल सकता है उत्तर प्रदेश में सालों पहले बेहमई कांड हुआ था. जहां फूलन देवी के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. कुछ समय बुलंदशहर हाइवे पर माँ बेटी के साथ भी ऐसा ही हुआ था, इसके पश्चात शिमला के कोटखाई में गुडिया के साथ भी कई ने मिलकर ऐसे ही अपराध को जन्म दिया. यहाँ तक कि उसके शरीर को सिगरेट से जलाया भी. मुझे यह सब लिखने में दुःख और ग्लानी महसूस हो रही है, लेकिन इन घटनाओं की पृष्ठभूमि भले ही अलग -अलग हो पर हालात एक जैसे ही थे ना?
बलात्कार भले ही केवल नारी अस्मिता से जुड़ा है पर घटनाएँ देखकर लगता है जैसे पुरुष अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए इस तरह का कृत्य करते हैं नतीजा 1981 के फूलन देवी बलात्कार कांड से ले कर 2012 में निर्भया कांड तक एक जैसे ही हालात देखने को मिले. जिस से यह लगता है कि तमाम तरह के कानूनी झगड़ों और फैसलों के बाद भी समाज अपना दायित्व निभाने में सफल नहीं हो सका है.
हर बार घटना होती रही समाज का एक धडा मोमबत्ती से लेकर सड़कों पर जुलुस निकालता रहा लेकिन फिर भी एक घटना के बाद दूसरी घटना सामने मुंह खोले खड़ी होती रही. आज निर्भया बलात्कार और हत्याकांड के मामले में दोषियों की सजा मील का पत्थर मानी जा सकती है. लेकिन इसे तमाम स्त्री जाति के लिए न्याय नहीं समझा जा सकता. क्योंकि अभी हिमाचल में गुडिया के हत्यारे, मंदसोर में नाबालिग बच्ची का दुष्कर्मी समेत कठुआ कांड के हत्यारे जीवित है. हाँ इस बीच अगर किसी को त्वरित मिला चाहें उसका ढंग कैसा भी रहा हो हैदराबाद में पशु चिकित्सक प्रियंका रेड्डी को जरुर त्वरित न्याय मिला है.
इस सब के बावजूद भी मेरा अपना मानना है कि इस तरह की मानसिकता को अगर जड़ से खत्म करना है तो सब से पहले उस से जुड़ी सोच को खत्म करने की जरूरत है. सामाजिक बुराई समाज से तब तक खत्म नहीं हो सकती जब तक उस से जुड़ी मानसिकता खत्म नहीं हो जाती. इस के लिए जरूरी है कि महिलाओं को जिस तरह से रोजमर्रा की जिंदगी में अपमान सहन करना पड़ता है उसे कानून से नहीं, समाज में सुधार लाने से ही दूर किया जा सकता है. मैंने पिछले दिनों एक डेकूमेंटरी देखी थी जिसमें जेल में बंद बलात्कार करने वालों अपराधियों से पूछा जा रहा था कि क्या उन्हें अपने किये पर पछतावा है तो अधिकांश का जवाब था नहीं.!!
बस इसी जवाब से समझना होगा कि उन्हें घर से लेकर समाज तक शायद एक स्त्री को सिर्फ भोग की वस्तु ही बताया जाता है. दूसरा आमतौर पर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध को ले कर महिलाओं को ही दोषी ठहरा दिया जाता है, क्या जरूरत है फैशन की, उनके कपडे उनका श्रंगार से लेकर उनका चलना तक इसके लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है. जब ऐसे उदहारण सामने रखे जाते है तो हर किसी अपराधी और समाज के एक हिस्से को भी लगने लगता है जैसे इस अपराध में महिला ही दोषी है, अगर वो ऐसे कपडे न पहनती, ये ना करती, वो ना करती तो यह सब नहीं होता..? ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं निर्भया वाले मामले में दोषियों के वकील ने अदालत में पक्ष रखते हुए कहा था कि वो रात में अपने दोस्त के साथ क्यों घूम रही थी? ऐसे ही उत्तर प्रदेश के बड़े नेता ने मुम्बई में एक महिला पत्रकार के साथ हुए सामूहिक रेप के बाद कहा था कि लड़कों से गलतियाँ हो जाती है. इस तरह के तर्क देने से गलत संदेश जाता है. अपराधियों को अपने बचाव का मौका मिलता है. ऐसे मामलों में दोषियों का सामाजिक बहिष्कार होना जरूरी है.
जबकि इसके विपरीत अभी यह देखा जाता है कि इस तरह की घटनाओं की शिकार महिलाओं को अलग-थलग रह कर जीवन गुजारना पड़ता है. दूसरी ओर जहां भी वह अपनी बात रखने जाती है लोग उस को सौफ्ट टारगेट समझने की कोशिश करते हैं. जिस संवेदनशीलता की उम्मीद समाज से होनी चाहिए, पीडि़ता के साथ वह नहीं होती है. बलात्कार केवल महिलाओं के शरीर पर ही अपना असर नहीं डालता, वह महिलाओं के दिमाग पर भी असर डालता है. महिला को लगता है कि अब उस के लिए समाज में कोई जगह नहीं बची है. उसे समाज गलत निगाहों से देखेगा. घर-परिवार के लोग भी यह नहीं मानते कि उस की गलती नहीं रही होगी. ऐसे में सब से जरूरी है कि कानून के साथ समाज भी पीडि़ता के साथ खड़ा हो और सभी अपराधियों का चाहें वह किसी महिला का भाई हो, बेटा हो अथवा पति हो सबका बहिष्कार करना होगा तभी हम नारी सशक्तिकरण का दंभ भर सकते है.