निंदा, ईर्ष्या, रोष
नासे बल गुण गृहण को, जो देखो परदोष।
अवगुण इतने अहितकर, निंदा ईर्ष्या रोष।
निंदा ईर्ष्या रोष, आत्मिक शांति नसाते।
मन के बैरी कोष, नोचकर तन को खाते।
कह संजय कविरूप, भोगते अच्छे खासे।
जल भुन गिरते कूप, ईर्ष्या बुधि बल नासे।
संजय नारायण