ना जीता हूँ न मरता हूँ
जब भी उसकी याद आती है ,ना जीता हूँ न मरता हूँ।
उस तक जाने वाले ख्वाबों के ,अक्सर पंख कुतरता हूँ।
मेरे दुःख को जाने क्या कोई ,कितना है इसमें दर्द भरा,
जमीदोंज है खुशियां सारी ,जैसे – तैसे ग़म से उभरता हूँ।
जब भी उसकी याद आती है ,ना जीता हूँ न मरता हूँ।
कुछ पता नही चलता है मुझको ,कैसे मैं इजहार करूँ।
दिल मे हलचल है ऐसी की ,नफरत करूँ की प्यार करूँ।
अपने ही दिल के आँगन में ,अजनबी बन के उतरता हूँ।
जब भी उसकी याद आती है ,ना जीता हूँ न मरता हूँ।
बुरे दौर में छोड़ने वाले ,अक्सर मिल जाया करतें हैं।
कुछ लम्हे ऐसे होते हैं ,जो ताउम्र सताया करते हैं।
एकदिन एहसास उसे होगा ,के मैं कितनी नफरत करता हूँ।
जब भी उसकी याद आती है ,ना जीता हूँ न मरता हूँ।
ये दिल अपनी गलती पर, अब भी अनजान ही है।
मुझे याद ये भी है के ,उसके मुझपर एहसान भी हैं।
सोच में उम्र गुजर जाएगी, कि मैं इतनी आहें भरता हूँ।
जब भी उसकी याद आती है ,ना जीता हूँ न मरता हूँ।
-सिद्धार्थ पाण्डेय