नारी व्यथा
एक प्रयास नवगीत पर🙏
शीर्षक — नारी व्यथा
नारी मन की
अमराई पर,
दे पौरुष बल
कोड़े।
स्वाभिमान के
अंबुज उसने,
सौ-सौ
बार मरोड़े।।
सहर काल से
नित संध्या तक,
चलती उसकी
मर्जी।
रिसते घावों
को सिल देता,
मिला न ऐसा दर्जी।।
अंत: तल के
मौन मवादी,
अब है विषमय
फोड़े।
प्रतिदिन लिखती
हूँ मैं सुख की,
सबके दिल की
पाती ।
अपने मन के
छालों का नित,
गला घोंटते
जाती।।
हर रिश्तें ने
ज़ख्मों पर बस,
नींबू नमक
निचोड़े।
कहने को तो
सभी बराबर,
कहती हैं ये,
दुनिया।
नारी हिस्से
में है आती,
समझौते की
खुशियाँ।।
कदम-कदम पर,
पीछे खींचे,
जंजीरों के
रोड़े।
क्रमशः……..©️
रेखा “कुमुद” नर्मदापुरम मप्र