नारी विमर्श के दोहे
नारी के उत्कर्ष का , बहुत हुआ गुणगान ।
क्या अब तक भी मिल सका , उसको समुचित मान ।
हाथ प्रेम की तूलिका, वर्ण पिटारी संग ।
जीवन में नारी भरे , सुख के सौ सौ रंग ।।
अनाचार सहती रही , युग युग से हर बार ।
नारी ने फिर भी किया, मानवता से प्यार ।।
होठों पर मुस्कान रख , बांट रही अनुराग ।
नारी सहती ही रही, असमदृष्टि की आग ।।
दया, धर्म या वीरता, शिक्षा, प्रेम- सुवास ।
नारी ने हर क्षेत्र में , रचा नया इतिहास ।।
चुटकी भर सिंदूर पर , अर्पित करती प्यार ।
प्यार, त्याग, ममता भरा, नारी का संसार ।।
बहुत अधिक बदली नहीं, नारी की तस्वीर ।
उसके हिस्से आज भी , वे ऑसू , वह पीर ।।
ठगी रह गयी द्रोपदी, टूट गया विश्वास ।
संरक्षण कब मिल सका , अपनों के भी पास ।।
प्रतिफल की इच्छा नहीं, नहीं दंभ का शोर ।
सन्नारी थामे हुए, सम्बन्धों की डोर ।।
मानवता के पक्ष में, नारी का हर रूप ।
छाया है वह धूप में, जाड़े में शुभ धूप ।।
– त्रिलोक सिंह ठकुरेला