नारी का जीवन
स्वछन्द परिन्दों सी उड़ान का सु -स्वप्न था देखा
नहीं था विदित कि इतनी सीधी नही होती ,भाग्य रेखा
न जाने कब फ़र्ज़ो केपिंजरे में कैद हो गयी
उसको बनानी थी इक पहचान,
पर वो दुनिया की भीड़ में ही खो गयी
वक्त के सैलाब में बहती गयी फिर उम्र उसकी
ख्वाबो को हकीकत में बदलने की चाहत फिर दफन हो गयी
पचास की हुयी जब पार, तो था इक नया पड़ाव आया
जहाँ उसने था एक एकाकी पन पाया
छोड़े उसने फर्ज तब और अपने संग था कुछ समय बिताया
दफन हुए सपनों को फिर था हक़ीक़त का चोला पहनाया
पोंछ कर अपने आंखों के नीर को, मुस्कान का आभूषण था पहनाया
यहीं कहानी है उसकी,मेरी और तुम्हारी
यही कहानी है उसकी, मेरी और तुम्हारी
अपने लिये भी ‘जियो’, मत कहलाओ अबला तुम नारी
डॉ. कामिनी खुराना (एम.एस., ऑब्स एंड गायनी)