नारायणी से पूर्व नारी
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चेहरे का नूर है स्वर्ण से साधित।
चक्षु की चंचलता,विह्वल आह्लादित।
नासिका नकबेसर से पूर्ण सुशोभित।
तेरे मुखमंडल पर तुम ही हो मोहित।
उभरे हुए गालों पर चुमबन हैं बिखरे।
उतरी हुई लट से ये और अति निखरे।
काले घने जुल्फों से रौशन है स्याही।
रेशम सी कोमल चमकती योगिता सी।(वश में किया हुआ)
अधर,ओष्ठ कम्पित हर गीत विरहा सी।
थिरके अब प्रेम-राग ओठों पर हाँ सी।
ग्रीवा पर चंद्रहार चन्द्रमा लजाये।
उतरी हुई छाती तक ज्योति बिखराये।
सोने की आभा से गढ़ा हुआ देह।
रोम,रोमकूपों से चूता हुआ नेह।
उन्नत उरोज,बाँह सुगठित सुडौल।
कंधे पर हाथ रख के सुन्दरता खौल।
नारी के गौरव से ये ललाट उन्नत।
भौंहों,बरौनियों का नर्तन व जाग्रत।
कर्ण भेद इतने ये धात्विक सब पुष्प।
विद्युत तरंगों सा नाच-नाच तुष्ट।
गालों की लाली पर अरूण-रँग,राग।
जैसे की होली पर नाच रहा फाग।
उदर की स्निग्धता पर फिसल जाय प्रण।
प्रीत मेरा सारा ही तुझको समर्पण।
नाभि तो कुम्भ से लगा रहा होड.।
देवता भी दौड. पडे. स्वर्ग-सुख छोड.।
और यह नितम्ब धनुषाकार,वाण तान।
युवती ये गोपिकाएँ आईये रस-खान।
चरण चपल छम-छम से शब्द रहा भेद।
नख-शिख सब सजा-धजा गोरी है विदेह।
सौन्दर्य देख बाला है खुद ही रही झेंप।
सावधान सौन्दर्यमयी दे विकार फेंक।
तेरे सौन्दर्य सा हो गेह,गाँव,राष्ट्र।
तू ही है प्रजा-पुंज और उनका सम्राट।
ये श्रृंगार देख ब्रह्म,विष्णु व महेश।
एक साथ अवनि पर आ टिकेंगे शेष।
किस चित्रकार ने यह चित्र नार का रचा।
चित्रकार का नहीं रे देश अपना यूँ सजा।
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