नानी का गांव
कितनी पुरानी यादें है वो नानी के गांव की,
मिट्टी के चबूतरे की,वो पीपल के छांव की,
वो बारिश की मस्त पवन,
जब हमे छू कर जाती थी,
गीली मिट्टी की सौंधी सौंधी,
धीमी सी खुशबू लाती थी,
खेलते थे मिलकर हम सारे,
दिन भर कालू के आंगन में,
लग जाते थे धब्बे मिट्टी के,
हर रोज अपने दामन में,
फिर गरजे जोरों से काले,
बादल बिजली के साथ में,
झूम उठे सारे मस्ती से,
अधनंगे इस बरसात में।
अल्हड़ सी वो मस्ती सबकी,
अलग अलग थे सबके ढंग
बचपन की वो रिमझिम बारिश,
मानो जैसे इंद्रधनुष के रंग,
अक्सर बहती थी गलियों में,उस कागज़ की नांव की।
कितनी पुरानी यादें है वो नानी के गांव की,
पैर नही पुरते थे पूरे,
नाना की फट फटिया में,
थक हार के बैठ जाते थे,
उषारी पे पड़ी खटिया पे,
बन जाता था मैं बस डराई वर,
खटिया बस बन जाती थी,
ढूंर ढूंर कर कर चलती थी,
और पौ पौ हॉर्न बजाती थी,
मामा की बैलगाड़ी पर टंगकर,
फिर वो सारे गांव में घूमना,
चिल्ला चिल्ला के जोरों से
वो बिन बाजे के झूमना,
बचपन की वो नादानियां मेरी,
तब बड़ी ही प्यारी लगती थी,
उटपटांग सी हरकते मुझको
तबकि समझदारी सी लगती थी।
बीतें हुए लम्हों के साथ जुड़े,मासूम से उस लगाओ की।
कितनी पुरानी यादें है वो नानी के गांव की
जिन्दगी का वो दौर भी
कितना सुहाना लगता था,
बेफिक्रे से सब घूमते थे,
और नादान जमाना था,
कल की कोई फिक्र न थी,
न खुद पे कोई जोर था,
जल्दी जल्दी जो गुजर गया,
वो वक्त नहीं कुछ और था,
कितनी सुनहरी यादें आज भी ,
उस सुहाने पल की है,
गुदगुदाती है जो हर रोज आके,
उस पुराने कल की है,
चाहते है सब फिर से जीना,
काश वो बचपन वापस आ जाए,
अपने संग यार दोस्त को गांव से,
लेकर लड़कपन वापस आ जाए,
याद आती है अब मुझे,जीवन के उस पड़ाव की।
कितनी पुरानी यादें है वो नानी के गांव की।
@साहित्य गौरव