नाथी
नाथी
नाथी, हाँ, यही नाम था उस बेचारे का । गाँव के सभी लोग उसे नाथी के नाम से ही पुकारते थे । और वह बेचारा कभी इस घर का टहल-टिकोला करता, कभी उस घर का । उस टहल-टिकोला के बदले कोई उसे बैना- पेहानी में आया हुआ दस-पंद्रह दिन पहले का खाजा-लड्डू दे देता तो कोई रात की बासी रोटी। नाथी बहुत ही श्रद्धा से अपने कंधे पर सर्वदा धारित गमछा का एक छोर गर्दन पर रखता और दूसरा छोर धरती पर बिछा देता । और उन खाद्य पदार्थों को बिना ध्यान से देखे दोनों हाथ से श्रद्धा पूर्वक गमछा में बाँधता, फिर वहां से उठता और चल देता । कंधा पर गमछा इस तरह रखता कि पोटली पीठ के पीछे लटक जाती और उस भार को संभालने के लिए गमछा के आगे वाले भाग को हाथ से पकड़ अपनी मरइरा वाला घर की ओर चल देता था।
कभी-कभार जैसे ही एक मकान से चलता, कहीं से आवाज आती –“नाथे, ज़रा सा इधर से होते जाना, एगो काम है।”.फिर क्या था अपना घर का रास्ता छोड़ उसका कदम आवाज वाले घर की ओर स्वत: चलने लगता। गाँव के कुछ लोग नाथी को नाथे नाम से भी पुकारते थे। गाँव के कोई-कोई उदंड लोग उसे नथवा भी कहते लेकिन नाथी किसी से मुँह नहीं लगाता।
किसी के घर में घास उग गया हो,कोई बहुत दिन पर शहर से गाँव पर आया हो,किसी के घर पर छोटा-मोटा काज-प्रयोजन हो, शादी हो, विवाह हो, मरनी हो, जीनी हो,किसी के खेत से कोई सामान लाना हो,सानी-पानी का प्रबंध करना हो, तब गाँव के लोग बेहिचक नाथी को बुलाता, काम करवाता और जो मन में आता दे-दिवाकर उसे रफा- दफा कर देता था । नाथी कभी किसी काम के लिए पैसा का तय-तमन्ना नहीं करता था और जो जो दे देता बिना ना-नुकुर के ले लेता था, कोई कीच-कीच नहीं, कोई वाद- विवाद नहीं। ऐसे कामगार को कौन नहीं चाहेगा, कौन नहीं खोजेगा,भला?
नाथी का उम्र बासठ पार कर रहा था,अब उठने-बैठने में भी लाचारी थी मगर परिवार की जिम्मेवारी उसे उस उम्र में भी टहल-टिकोला करने को बाध्य कर रहा था। उसके पिता भी इसी तरह का कार्य करते-करते अपना जीवन गुजार चुके थे । वैसे, उसका पिता, जनार्दन महतो, एक लंबा-छरहरा-गोरा जवान था जिसे देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वह कोई बेगार करने वाला आदमी हो सकता है लेकिन वह भी पढाई-लिखाई से वंचित रह गए थे । शहर में जाकर काम करना उस जमाने मे कम दिमाग वाले के लिये आसान नहीं था । अलबत्ता जो तेज- तर्रार लोग होते थे,बाहर निकल जाते थे और एक अच्छी-खासी कमाई करके बड़े शहर से गांव लौटते थे। वैसे लोग गांव मे आकर बड़े शान से रहते, जिस जगह से काम करके आते, उस जगह का पूरा बखान करते, कुछ बढ़ा- चढ़ा कर करते और गांव के अनपढ- गंवार लोग उसको ताज्जुब से सुनते थे।लेकिन जनार्दन महतो गांव में ही खट-खट कर अपना जीवन-यापन करते रहे।
जनार्दन महतो तीन लड़का के बाप थे. – प्रभु,राजनाथ और ईश्वर। प्रभु उसी गांव में मजदूरी करते-करते अपना बुढापा ला दिया था। वह स्वभाव से आलसी था लेकिन बहुत मूंहफट । कई बार तो इसी स्वभाव के कारण कई लोगों से झगडा-झ्न्झट हो जाता था । उसके उस स्वभाव के कारण कुछ लोग घटले उसको अपने काम पर लगाते थे । सबसे छोटा बेटा, ईश्वर, अंतह काम करने चला गया था। एक बार जो वह गांव से गया फिर कभी गांव में न लौटा, उसका कोई खोज-खबर भी आजतक न मिला। अब गांव के टोटल सेवा-टहल का काम नाथी के माथा पर पटका गया, उसी के जिम्मे आ गया।
उस गांव में भिन्न – भिन्न जाति के लोग रहते थे ।राजपूत, ब्राह्मण,यादव, माली, कुम्हार, दूसाध, कहार आदि-आदि और हर टोला का नाम भी उसी तरह से रखा हुआ था, जिस जाति के लोग निवास करते थे यथा रजपुतान, कुम्हरटोली, मलियान, कहर्टोली, भटोली, नयका टोला, पुरनका टोला, तेलीयान. एक टोला में एक ही जाति के लोग रहते थे। मिला-जुला लोग किसी टोला में नहीं रहते थे यानी किसी टोला में जाति की खिचडी नहीं थी।
अभय शंकर की कुछ वहां खेती-बारी थी।इसलिए वह हैदराबाद से हर गरमी की छुट्टी में गाँव आता था और बजावता दस- पंद्रह दिन रहता था। आता था तो अपनी पत्नी को भी लेकर आता था। उसका बेटा-पुतोहू, जो हैदराबाद शहर के हवा में रहते थे, बाप- माँ के कहने पर भी न उनके साथ नहीं आता था। उन दोनों को देहाती वातावरण पसंद नहीं था।अभय शंकर का कभी- कभी गांव पर आना-जाना होता था इसलिए गांव के बहुत सारे लोग उसे न पहचानते थे और वह भी न पहचानता था। दरअसल अभय शंकर मैट्रिक पास करने के बाद जो गाँव से गया वह हैदराबाद के ही होकर रह गया था। अलबत्ता उसका गोतिया फरीक थे मगर नाम के । गाँव में रहने वाले लोग बाहर रहनेवाले लोगों को विलायती लोग समझते हैं ।उनका हक़-हिस्सा आराम से खाते हैं लेकिन घर आने पर उन्हें चाय पानी के लिए भी न पूछते हैं। वहाँ अपनी व्यवस्था खुद ही करनी पड़ती थी।
इस बार जब अभय शंकर गाँव आया तो वहां कुछ दिन रह गया था।चाय पीने के लिए तो वह डेयरी वाला दूध बहुत दूर से ले आता था लेकिन जब डॉक्टर ने उसकी पत्नी को गाय का दूध पीने की सलाह दी तो गाँव वालों से दूध की उपलब्धता की बात पूछी। लोगों ने नाथी का नाम बताया । अभय शंकर नाथी का नाम पहले सूना भी था और देखा भी था।पत्नी भी उसके यहाँ कभी काम धाम की थी। लेकिन वह नाथी को तो पहचानता था लेकिन उसकी पत्नी और बच्चे से वाकिफ न था।
अभय शंकर एक केन लिया और पूर्ण विश्वास के साथ नाथी के यहाँ दूध लेने चला। केला के बगान के बीच में उसका घर था। घर क्या था गाँव के लोग उसे बथान या घर का अवशेष समझते थे | एक दो आदमी से पूछते पूछते वह जब उसके घर के नजदीक पहुंचा तो वहाँ कोई नहीं था। अलबता वहाँ एक विटप अस्तित्व में था तथा वहाँ एक गाय बैठी हुई थी ।गाय आराम से पागुड कर रही थी। बगल में एक प्राग ऐतिहासिक कालीन खटिया थी जिसकी बिनावट की रस्सी के जोड़ जहाँ-तहाँ लटकी हुई दिखलाई दे रही थी। खटिया का ओरचन भी ढीला था। खाट से कुछ दूरी पर एक ठेहा भी था और उसके नजदीक कुछ हरी ताजी घास-पात एवं कच्चा झल्ला (केला का पत्ता )रखा था जो कुट्टी बनकर मवेशी का चारा बन1ने को तैयार थी लेकिन वहाँ घास की कुट्टी बनानेवाली गरासी नहीं थी। इसके अलावे जहाँ-तहाँ दो चार झल्ला दिखलाई दे रहा था।
उस एकांत और निर्जन जगह में इन चीजों के अलावा चारो तरफ केला का पेड़ खड़ा था। मरईया के बगल में एक सडा-गला ताड का पेड़ था जिसका नीचे का भाग भुर्भुरा हो चुका था और उपर वाला भाग उसपर बैठने- उठने से मटमैला रंग का हो गया था। ताड़ का वह सुखा पेड़ अपनी पुरातनता की कहानी खुद कह रहा था । उससे एक बकरी बंधी थी जो रह-रह कर मेमियाती थी और उस निर्जन में किसी प्राणी की उपस्थिति दर्ज कराती थी।
उसने चिल्लाया- “नाथी, ऐ नाथी।” अभय को कहीं से एक दुर्बल आबाज़ सुनायी दी – “के हथिन ?” एक औरत झोपडी के पीछे से निकल कर आयी और आगंतुक को देखकर दोनों हाथ जोड़कर बोली – “परनाम।” वह उन्हें पहचान गयी थी। आगे बोली – “कहिया अलथिन?” उसने कहा- “आज ही आया हूँ, नाथी कहाँ है ?” वह नहीं सुन पाई।
केला सब अंहर में गिर गेलई। भगवान हमरा सब के जिनदे मार देलथिंन।
अभय शंकर को यह दुखड़ा सुनना अच्छा नहीं लग रहा था।अन्मस्यकता के साथ उसने फिर कहा -”सो तो है लेकिन नाथी कहाँ है ?”
फिर वह नहीं सुनी। वह थोड़ा कम सुनती थी इसलिए गाँव के लोग उसे बहरी कहते थे लेकिन यह अनोखी बात से वह उस दिन तक अपरिचित था।
अपना केन दिखाते हुए अभय शंकर बोले- मैं दूध के लिए आया हूँ, इंतजाम हो जायेगा?
इस बार वह समझ गयी थी। ना में मुँह हिलाती हुई बोली- सब दूध त सेंटर चल जा हई। अपनो ला न रखा हई।
फिर अभय ने जोर से कहा- और नाथी कहाँ है?
सुतल हथिन, तबियत खराब हई।
अभय शंकर अब ज्यादा गिरगिराना उचित नहीं समझा। वहाँ से खाली हाथ लौट आया। और सीधे मेरे दरवाजे पर आ गया। अभय शंकर को पता था कि मैं भी गाँव पर आया हुआ हूँ। मैं भी खूब आब भगत किया। केन हाथ में देखकर मैंने कहा- “ यह केन? “ उसने नाथी के यहाँ जो कुछ हुआ था सो सारी बातें बता दिया,रामायण महाभारत की तरह। मैंने कहा – अब देहात में भी दूध दही का काफी अभाव हो गया है। जब भाभी बीमार हैं तो मैं नाथी के पत्नी से कह दूंगा,वह मेरी बात नहीं टारेगी।
मुझे अपने आप पर पूरा विश्वास था। इसका कारण यह था कि मैं अपने हिस्से की सारी खेती बारी उसी पर छोड़ रखा था।वही सभी जमीन में फसल बोता काटता था। साल में कभी गांव पर जाता तो थोड़ा बहुत उसे जो जुड़ता,दे देता था और मैं उसी में संतुष्ट रहता था। क्योंकि गांव पर जाने के बाद वह मेरे लिए एक पैर पर खड़ा हो जाता था।
गरमी का मौसम था परंतु उबाऊ गरमी नहीं थी। j रह रह कर पछुआ हवा चल रही थी। गाँव में मेरी भी थोडी सी खेती बारी है जो नाथी के ही हिल्ले हवाला है। गाँव में मेरा भी एक काम चलाउ मकान है उसी मकान के सामने कुर्सी पर मैं बैठा था। आगे खुला जगह होने के कारण सड़क पर आते जाते लोग स्वत: दृष्टि गोचर हो जाते थे।
उस सुबह जब मैं दरवाजे पर बैठा था,मैने देखा कि नाथी लंगड़ाता डोलता मेरे दरवाजे की ओर आ रहा था। उसकी कारुणिक दशा देखकर मुझे बहुत दया आ रही थी।उसका भी एक किस्मत था।एक बेटा बताह और दूसरा बेटा बौराह और पत्नी बहरी। उसके पीछे-पीछे उसकी पत्नी भी आ रही थी।
मेरे समीप आकर नाथी बोला- “परनाम। “ उसकी आवाज़ लड़खड़ा रही थी, स्पष्ट रूप से बोला नहीं जा रहा था। उसकी दशा देखकर पत्थर भी पसीज जाता। मैंने इसारे से आशीर्वाद दिया और उसे बैठने का इशारा किया। वह बगल के ओटा पर थरथराते हुए बैठ गया और पत्नी बेचारी परनाम करके वहीं खडी रही।
मैंने कहा- क्या हालचाल राजनाथ? नाथी का असल नाम राज नाथ महतो था और मैं जब भी पुकारता था तो राजनाथ ही कहता था। मेरे सबाल का उत्तर राजनाथ कुछ नहीं दिया। वह टुकुर टुकुर मुझे चुपचाप देख रहा था। उसकी पत्नी बोली- “हाल चाल त अपने देखते हथिन। जहिया से हवा लगलईंन तहिया से ई बिछावने पर हथीन। सेंटर वाला से बहुते करज लिया गेलई ह, लगहर के सब दूध सेंटर में चल जा हई। भगवान बहुत तकलीफ दे देलथीन।
मैंने दिलासा दिलाते हुए बोला- भगवान दुख दिए हैं तो वही दूर भी करेंगे। हिम्मत से काम ल। घबराए के न चाही।
फिर मैंने आगे कहा- अब त राजनाथ गिर गया,अब तो इससे खेती बारी होने से रहा। अब खेत का क्या करें।
उसकी पत्नी रूआंसा आवाज में बोली – सब लोग त खेत छोड़ा ही लेल कई। अपने के बचल है। अपने भी छोड़ा लू।भगवान के जईसन मरजी होतइन वईसने होतई।
उसकी आवाज में बहुत टिश थी, पीड़ा थी वेदना थी ; एक भाग्यहीना की पुकार थी।
मैने कहा- तू हमरा तरफ से निश्चिंत हो जा,जब तक तू हम्मर खेती बारी करेला चाहब तक तक कर सकई ह।
मेरी बात अपेक्षा के प्रतिकूल था। उन्हें लगा था कि अब यह भी खेत अपना ले लेंगे और किसी दूसरे को जोतने बोने के लिए दे देंगे। मेरे इस आश्वासन से दोनों का चेहरा इस तरह खिला मानो उन्हें अभय दान मिल गया हो।