नव उत्सव का आगमन
नव उत्सव का आगमन
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“अमन इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा, इस बार नवरात्रि में वैष्णव देवी दर्शन करने हम सभी चल रहे हैं और दशहरे के रोज बनारस में हर एक पण्डाल का दर्शन भी हम सभी आपके साथ ही करेंगे।”
“मानवी, तुम जानती तो हो हमारी व्यस्तता को फिर भी यह सब क्या बचपना है? हम नहीं जा रहे कहीं भी घुमने।इतने व्यस्त जीवन में भला इस तरह की थकावट भरी यात्रा का क्या लाभ? नौकरी भी ऐसी है कि एक दिन का अवकाश भी ले पाना सम्भव नहीं होता। तुम्हें जाना है तो तुम चिन्टु और प्रेरित के साथ चली जाओ हाँ दशहरे के रोज मैं कोशिश करूँगा तुम लोगों के साथ रहने का।” अमन के मुख से प्रस्फुटित तल्खी भरे शब्दों को सुन, मानवी एकदम से भड़क उठी।
“कहीं भी जाने की बात करो हमेशा ऐसे ही जबाव मिलते हैं। हर बार एक ही सड़ी- गली बात, यार तुम बच्चों के साथ चली जाओ, हद कर दी है आपने, जब से ब्याह कर आपके घर आयी न कहीं जाते हो, न जाने देते हो, हर वक्त बस काम,काम और काम , जीवन में जैसे काम के सिवाय कुछ शेष है ही न। पर्व, त्यौहार या किसी भी तरह के किसी भी उत्सव का कोई औचित्य ही नहीं। आपके साथ रहकर ऐसा लगता है जैसे हम सब इंसान नहीं कोई मशीन हों।”
मानवी की रोष भरी बातों से चिढ़ कर
अमन झुंझलाया “ज़िद मत करो मानवी” जीविकोपार्जन के लिए काम जरुरी हैं।पर्व,त्योहार और बाकी जरुरतें इसी काम से कमाये धन से ही पूरे होते हैं। मुझे शौक नहीं यूँही मौज-मस्ती करने की ।तुम्हें तो घूमने के बहाने चाहिये होते हैंऔर किसी बात से कहीं भी, किसी भी तरह का, कोई सरोकार है नहीं। तुम्हें क्या पता बच्चों की परवरिश, पढ़ाई- लिखाई और अन्य आवश्यकताओं की आखिर व्यवस्था होती कैसे है?
मैं इतना बेवकूफ नहीं कि तुम्हारे फालतू शौक के लिए चार- पांच दिन खराब करूँ, ऐसी बेवकूफी मैं कदापि नहीं कर सकता, रही बात उत्सव मनाने की तो मेरे लिए मेरा काम ही तीर्थ है और उसमें मिलने वाली सफलता ही मेरा उत्सव।”सदा की तरह आज भी अमन ने लंबा -चौड़ा भाषण सुना दिया।
यह सुन कर मानवी देर तक बड़बड़ाती रही, दोनों बच्चों ने भी अमन को समझाने का,मनाने भरसक प्रयास किया पर वह अपने फैसले से टस से मस नहीं हुआ। प्रेरित ने पड़ौस के शर्मा जी का हवाला भी दिया तो अमन बौखला गया ।भड़क कर बोला
“शर्मा अंकल तो निठल्ले हैं ।उन्हें कोई काम तो है नहीं सरकारी नौकरी है, मुफ्त का पैसा आ रहा है फिर भला वो क्यों मना करने लगे। जब देखो पागलों की तरह बिना बात परहो हो करके हँसते रहते हैं जब देखो तब उटपटांग हरकतें….।”
“पापा, शर्मा अंकल पागल नहीं अपितु उलझनों से परिपूर्ण भागमभाग भरे इस उबाऊ हो चले जीवन से भी खुशियों का खजाना ढूँढ लेते है और एक जिंदादिल इंसान की तरह खुश रहते हैं और सबको खुश रखने का प्रयास करते हैं। “प्रेरित अपनी बातों से आज समझदार दिखने लगा था शायद उसे भी कहीं न कहीं अमन का यह व्यवहार अब खलने लगा था।
पापा के आगे चुप रहने वाला चिंटू भी कह बैठा-“पूरी कालोनी आपको खडूस,सडू और गुस्सेबाज कहती है।अनव्यवहारिक। इसलिए कोई भी हमारे यहाँ आना पसंद नहीं करता।”
“चिंटूऊऊऊऊऊ।”अमन दहाड़ा।
पर आज बच्चे चुप रहने वाले नहीं थे।घर के वातावरण से ऊब चुके थे।अपने दोस्तों के घर जाते तो हीनता बोध से ग्रसित हो घुट जाते।
आज उन्होंने मानवी से पुछ ही लिया , ” मम्मी पापा हमेशा से ऐसे ही है क्या? न कभी हँसते, न किसी से बात करते, न कहीं घूमने जाना, आखिर आपने इनके साथ इतना वक्त गुजार कैसे लिया? आपके मन में तनिक भी घुटन नही होती?
बच्चों के प्रश्नों ने मानवी को अतीत में ढकेल दिया। जब पहली बार वह अमन को मिली थी तो वह भी यही आश्विन नवरात्रि का समय था ।कितनी शिद्दत के साथ अमन पण्डाल को सजाने सवाँरने में लगा था। नौ दिन होने वाले नाटक में अहम किरदार भी तो अमन ही निभाया करता था। हँसमुख ,जिंदादिल अमन की इसी अदा पर ही तो मानवी मर मिटी थी, प्यार हुआ, इकरार हुआ और फिर घरवालों के खिलाफ जाकर दोनों ने शादी कर ली, यहाँ तक सबकुछ ठीक रहा पर इसके आगे का सफर अमन की जिन्दादिली में जहर घोल गया। घर वालों ने बिना कुछ दिये दोनों को घर से रुखसत कर दिया।
बड़ी ही कठिनाई से अमन ने खुद को सम्हाला और दूसरे शहर आकर अपने लिए व अपने छोटे परिवार के लिए एक बेहतर भविष्य तलाशने में जुट गया।किन्तु इस सुनहरे भविष्य को पाने की जद्दोजहद में उसने जो किम्मत चुकाई वह थी उसके जिंदादिली की। एक हँसता खेलता इंसान गम्भीरता की प्रतिमूर्ति बन बैठा।
मानवी और बच्चों के बीच हो रही इन बातों को सुन अमन को अहसास हुआ कि
कुछ पाने की इस जद्दोजहद में वह कितना कुछ खो चुका है आखिर उसके साथ जो कुछ भी हुआ उसमें भला इन बच्चों का क्या दोष और हाँ, मानवी ने भी तो इस संघर्ष में उसके कदम से कदम मिलाया तो फिर उसे ऐसी यातनाएं क्यों भुगतनी पड़ रही। यह सब सोचते हुए जैसे अमन को झटका सा लगा हो, उसे आज अपने अबतक के व्यवहार पर शर्मिंदगी महसूस होने लगी और वह तुरन्त ही उस कमरे में दाखिल हुआ जहाँ बच्चे मानवी से वार्तालाप कर रहे थे। अमन के वहाँ दाखिल होते ही सब चुप हो गये। अमन उन सब के बीच बैठ गया। उसके पास आने पर जो चुप्पी फैल गई थी आज यह चुप्पी उसे पहली बार अंतस तक व्यथित कर गयी। पहले तो उसने अपने ऊपर चढ़ी गंभीरता रूपी चादर को उतार फेंका और मुस्कान का आवरण अपने मुख पर चढ़ा कर कहने लगा।
“बच्चों , छोड़ो सब परेशानी ।हम नवरात्रि के पहले दिन ही वैष्णव देवी दर्शन के लिए कटरा चलेंगे और फिर वहाँ से मैहर देवी दर्शन वापसी में दशहरे के दिन हम सभी साथ में मेला देखते हुये मौज- मस्ती करेंगे और इस उत्सव का आनंद लूटेंगे। यहीं नहीं आगे भी प्रत्येक तीज-त्योहार पर हम आप सभी के साथ ही रहेंगे आज और अभी से इस घर में केवल हँसी का साम्राज्य होगा, सबके चेहरों पर केवल और केवल खुशी वास करेगी। आज से कोई भी चेहरा मुर्झाया हुआ नहीं दिखेगा और
हाँ चिंन्टु ! एक बात और आज और अभी से तुम्हारे खड़ूस पापा को कोई भी खड़ूस नहीं कहेगा। “आज पहली बार यह बात कहते हुये अमन का चेहरा खुशी से दमक रहा था।”
अमन की बातें सुनकर मानवी को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसके जीवन में पुनः नव उत्सव का आगमन हुआ हो वह खुशी के मारे खुद को रोक न पायी और अमन के गले लग फफक ही तो पड़ी।
✍️ पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण
बिहार