नवगीत
एक रचना
अधरों पर मचली है पीड़ा
अधरों पर मचली है पीड़ा
कहने मन की बात।
आभासी नातों का टूटा
दर्पण कैसे जोड़ूँ?
फटी हुई रिश्तों की चादर
कब तक तन पर ओढ़ूँ
पैबंदों के झोल कर रहे
खींच तान, दिन- रात।
रोपा तो था सुख का पौधा
हमने घर के द्वारे
सावन -भादो सूखे निकले
बरसे बस अंगारे
हरियाली को निगल रही है,
कंकरीट की जात।
तिनका-तिनका, जोड़- जोड़कर
जिसने नीड़ बनाया
विस्थापन का दंश विषैला
उसके हिस्से आया।
टूटे छप्पर की किस्मत में
फिर आयी बरसात।
मीनाक्षी ठाकुर,
मिलन विहार
मुरादाबाद????28-6-2021