नवगीत
मित्रो ! आज एक गीत **जो लिखा था पत्र तूने**
जो लिखा था पत्र तूने
आज से दो साल पहले
कल मिला है
सीप में मोती जमा ज्यों
बाँस में भी बंशलोचन
जल मिला है
आँख थी डल झील, पानी
जम रहा था, अस्थियों में
देह पीली
आंतरिक संवेदना जो
थम रही थी, धमनियों में
रेह गीली
शब्द जो राजी-खुशी के
लेख में उभरे हुए हैं
बल मिला है
है बहुत आकाश नत, पर
अति अधिक आवेग में हैं
नम हवाएँ
सो रही है धूप छत पर
पर्वतों के प्रांगणों में
तम दिशाएँ
है पता, कुछ भी नहीं, किस
अर्चना का, कौन सा, यह
फल मिला है
एक ही जो टीस मन में
चुभ रही थी बहुत दिन से
कम हुई है
मंजिलों के पास जाती
ही नहीं थी साधना जो
क्रम हुई है
दर्द की अपनी वसीयत
आँसुओं को लिख रहा हूँ
हल मिला है
^**^
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ