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3 Jul 2021 · 4 min read

नयी मेंहमान

बात जून 2013 की है, जब मैं एग्जाम खत्म होने के बाद गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने के लिए घर पर आया हुआ था ।
लगभग एक वर्ष होने को था, तब से मैंने कुछ भी नहीं लिखा था , इससे पहले मैंने कुछ कवितायें और कहानियाँ लिखीं थीं, लेकिन उस दिन मैंने ठान ही लिया था, कि मैं आज अवश्य ही कुछ न कुछ लिखूँगा ।

मैंने पेन और कॉपी ली, और छत पर आ गया ।
मैं पश्चिम दिशा की ओर बैठ गया, सूर्य बिल्कुल हमारे सामने था, जो कुछ समय पश्चात अस्त होने वाला था । जून का महीना था, हवा मध्यम गति से चल रही थी, जो ठण्डी और सुहावनी थी । आस-पास का वातावरण शान्त था ।
मैं अपने साथ एक पेज भी लाया था, जिस पर एक अधूरी गद्य रचना थी, सोचा कि आज इसे अवश्य पूरा कर लूँगा, मैंने पेन उठाया और उस पर लिखने के लिए कुछ सोचने लगा, परन्तु कुछ शब्द नहीं बन पा रहे थे, कभी पेन के ऊपरी हिस्से को दाँँतों के बीच में रखता और कभी अपने मोबाइल फोन को अंगुलियों के सहारे से उसे वृत्ताकार घुमाता, परन्तु कुछ लिखने के बजाय, मैं मंत्रमुग्ध सा एकटक सामने की ओर देखता रहता !
और देखता क्यूँ नहीं, सामने एक ऐसी विषय वस्तु ही
थी, जो हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित
कर रही थी।

और वो विषय वस्तु एक लड़की थी, जो अपनी छत पर
खड़ी हुयी थी। ‘हमारी छत से उस छत की दूरी, जिस पर वह लड़की खड़ी थी, लगभग दस छत थी’ ।
उस लड़की की लम्बाई लगभग ‘पाँच फुट छ: इंच’ थी,
हरे रंग का वह सूट पहने हुए थी, रंग गोरा और पूरा शरीर एक मूर्ति की भाँति प्रतीत हो रहा था । बाल घुँघराले और लम्बे थे, अपने कुछ बालों को लटों के रूप में अलग निकाले हुए थी, जो हवा के रुख से दुपट्टे के साथ उड़ रहे थे,
जो वह अपने सिर से डाले हुए थी । वह अपनी लटों और दुपट्टे को बार-बार सम्भाल रही थी ।

हम सोंच रहे थे, कि एक हमीं हैं, जो इस नजारे का लुत्फ ले रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं था, एक और लड़का था, जो हमारा जाना – पहचाना था, उसकी छत उस लड़की की छत के करीब थी।
वो एक दूसरे को देखते और मुस्कुरा देते ।

उनको देखकर ‘श्रृंगार रस’ की कविता लिखने को मन कर रहा था, लेकिन क्या करता मुझे अपनी गद्य रचना पूरी करनी थी ।
मैंने मोंह छोड़ा और वापस आकर अपनी गद्य रचना को आगे बढ़ाया । अब शब्द मस्तिष्क से बाण की भाँति निकल रहे थे, और मैं उन्हें कागज पर उतार रहा था, लेकिन यह कल्पनाशीलता ज्यादा देर तक न टिक सकी, और ये आँखें उसी दृश्य पर जा रुकीं, जहाँ पर प्रेमी युगल चहल कदमी कर रहे थे ।
हमारी दिलचस्पी बढ़ी और मैं अपनी पीछे वाली छत पर से आगे वाली छत पर आ गया ।
लेकिन दृश्य तिमिर में खोता जा रहा था, क्योंकि शाम हो चुकी थी, वो दोनों नीचे चले गए, फिर मैं छत पर अकेला क्या करता, अब और कुछ लिखने को मन नहीं कर रहा था, क्योंकि मेरा ‘शब्दकोश’ अब वहाँ उपस्थित नहीं था । मन कुछ अशान्त सा महसूस कर रहा था, और मैं बेमन नीचे उतर आया ।
सुबह हुई मन में चंचलता का उद्गम हो रहा था, और हृदय की लहरें उत्ताल हो रहीं थीं ।

मैं जल्दी तैयार हुआ और छत पर आ गया, मैंने अपने आस-पास के वातावरण को महसूस किया ।
हवा कल की तरह मध्यम और ठण्डी वह रही थी, लेकिन वातावरण में नीरसता सी छाई हुई थी, क्योंकि इसमें वह प्रलोभन नहीं था, जो कल के वातावरण में था, मैं नीचे उतर आया ।
हमारा हृदय कुछ जानने को इच्छुक था, लेकिन किसी से कुछ पूँछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था । अब मैं क्या कर सकता था, वही किया जो कर सकता था – इन्तजार – सूर्यास्त होने का ।

दिन कुछ बड़ा लग रहा था, हृदय में कुछ चंचलता सी थी, आँखें बन्द करता तो वह सुन्दर सी छवि मन-मस्तिष्क में प्रकट हो जाती, और खोलता तो…
पूरे दिन मन-मस्तिष्क की यह लुका-छिपी चलती रही ।
आखिर वह घड़ी आ गयी जिसका मुझे इंतजार था ।
मैंने फिर कॉपी और पेन लिया और छत पर आ गया, मन में बहुत ज्यादा उत्सुकता थी, सबसे पहले नजर उसी ओर दौड़ाई जिस ओर मैंने ‘सुष्मित सूरत’ के दर्शन किए थे ।
लेकिन ये क्या हुआ , वातावरण में कुछ बदलाव सा था, वह लड़का सिर नीचे किये हुए छत की मुँडेर पर बैठा हुआ था । जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से बिछड़ कर उदास और दुखित हो बिल्कुल वैसे ही । मैंने उसे आवाज दी और नीचे बुलाया । जब मैं उससे मिला और उसके चेहरे के हाव-भाव देखे तो मुझे ऐसा लगा जैसे कि, वह कोई वियोग श्रृंगार की कविता पढ़ कर आया हो, मैंने बातों ही बातों में उस लड़की के बारे में पूँछा, तो पता चला कि वह तो आज सवेरे ही अपने घर चली गयी ।
वह एक “नई मेहमान” थी जो पहली बार अपनी दीदी के यहाँ आयी हुयी थी ।।…

आनन्द कुमार
हरदोई (उत्तर प्रदेश)

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