नया शहर हो गया-पुस्तक समीक्षा
अगर ये कहा जाए कि कवि को वरदान प्राप्त है कि वह लम्बी-चौड़ी गाथा को चंद लफ्जों में समाज के समक्ष प्रस्तुत कर देता है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। किसी प्रख्यात कवि का कथन है कि समाज में जो होना चाहिए वो न होकर, जो नहीं होना चाहिए वह हो तो वह व्यंग्य पैदा करता है और इसी प्रकार कवि कविता का सृजन भी करता है।
उक्त पंक्ति को सार्थक करती विद्वान एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि श्री नरेश कुमार चौहान की नवकृति ‘नया शहर हो गया’ हमारे समक्ष है। जिसमें कवि ने न मान-बड़ाई, न दौलत-शोहरत और न ही किसी अन्य वस्तु को बंटोरना चाहा बल्कि समाज की उथल-पुथल, विद्रूपताओं एवं विषमताओं को इस कदर कलम की डोरी से शब्दों के मोतियों को पिरोकर संजीवनी माला बनाई कि ग्रहण करने वाले को स्पष्ट महसूस हो कि वह शब्द किसी और को नहीं बल्कि मुझे ही कहे जा रहे हों।
श्री चौहान पेशे से शिक्षक हैं, परन्तु समय और समाज के उतार-चढ़ावों पर पैनी दृष्टि ऐसी कि जैसे वे कहना चाह रहे हैं कि मेरे मौहल्ले, मेरे शहर ही नहीं बल्कि मेरे पूरे देश में अमन-चैन, खुशहाली और बहारें हों।
‘परिवर्तन का सोपान’ से लेकर ‘मुझे समझ नहीं आता’ तक कुल चौवालिस कविताओं पर कवि ने केवल तंज़ ही नहीं कसे, बल्कि लघु शब्दों के माध्यम से इस प्रकार समाज के प्रत्येक प्राणी को संदेश देने का प्रयास किया है कि पढऩे वाले के अन्त:हृदय से आवाज आ जाए कि ‘अब बहुत हुआ, अब कुछ करना होगा’।
मनोज अरोड़ा
(लेखक एवं समीक्षक)
संपादक साहित्य चन्द्रिका पत्रिका
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