नन्हे-मुन्ने हाथों में, कागज की नाव ही बचपन था ।
नन्हे-मुन्ने हाथों में, कागज की नाव ही बचपन था ।
जिसके नीचे खेले वो, पीपल की छाँव ही बचपन था।
कभी झील सा मौन कभी, लहरों सा तूफानी बचपन,
कभी – कभी था शिष्ट कभी, करता था मनमानी बचपन।
गिल्ली-डंडा, दौड़-पकड़, खोखो के खेल निराले थे,
साथ मेरे जो खेले मेरे, यार बड़े मतवाले थे।
जिसे छुपाते थे माता से, ऐसा घाव ही बचपन था ।
नन्हे-मुन्ने हाथों में, कागज़ की नाव ही बचपन था।
पापा के उन कंधों की तो, बात ही थी कुछ खास।
बैठ कभी जिन पर यारों, हम छूते थे आकाश ।
मां की रोटी के आगे सब, फीके थे पकवान ।
सचमुच मेरा बचपन था, इस यौवन से धनवान।
जाति, धर्म के भेद बिना का, प्रेम भाव ही बचपन था।
नन्हे-मुन्ने हाथों में, कागज़ की नाव ही बचपन था।