* नदी की धार *
** मुक्तक **
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नदी की धार के विपरीत बहना है बहुत मुश्किल।
न निर्झरणी कभी रुकती बहे ही जा रही अविरल।
बहा करती नदी देखो समुंदर लक्ष्य है उसका।
हमेशा प्राप्त कर लेती बिना चूके स्वयं मंजिल।
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दिया है जन्म इसने सभ्यताओं को जमाने में।
हमेशा से रही आगे तृषा सबकी बुझाने में।
नदी का काम बहना है अहर्निश बिन रुके अविरल।
मिला करता इसे आनन्द सागर में समाने में।
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पहाड़ों में बहा करती बहुत है संकरी राहें।
नदी कल-कल सुनाती रागिनी गूंजें चरागाहें।
हुआ करते सभी हैं तृप्त पीकर जल अमिय जैसा।
गले सबको लगाती खूब फैलाती सदा बाहें।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य, १४/०३/२०२४