नदी की अभिलाषा / (गीत)
ओ ! अषाढ़ के
कारे बदरा,
आस भरी
आँखों के कजरा,
बरस पड़ो
विरहा के तट पर ।
कई महिनों से
तपते-तपते
सूखी सघन
अश्रु-धारा यह ।
लू,लपटों का
वेग झेलकर
काली पड़ी
कूल-कारा यह ।
ओ ! सागर से
आने बाले ,
सूने नभ पर
छाने बाले,
उतर पड़ो इस
प्यासे घट पर ।
तेज धूप का
ताप झेलकर
तपे घाट के
पाट सुहाने ।
अवघट तपता,
पनघट तपता,
सूखा जल औ’
तपे मुहाने ।
ओ ! पावस के
पहले बदरा,
वनिता के
केशों के गजरा,
बरस पड़ो अब
सूखी लट पर ।
ओ ! अषाढ़ के
कारे बदरा,
आस भरी
आँखों के कजरा,
बरस पड़ो
बिरहा के तट पर ।
०००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी ।