नदियों के नज़ारे
रचना नंबर (14)
विधा,,, गीत
नदियों के नज़ारे
झूमती सारी नदियाँ जब
पहाड़ों से उतरती हैं
झरने सोतों में बंट करके
उछलती नाद करती हैं
के धुँवाधार जब बनते
बड़ा उन्माद करती हैं
नज़ारे नदियों के सारे
दिल को शाद करते हैं
लुढ़कते पाषाण के टुकड़े
ये शालिग्राम बनते हैं
लहरे आघात करती हैं
शिव का रूप धरते हैं
कोशिशें करने वाले तो
मंजिलें पा ही लेते हैं
नज़ारे नदियों के सारे
दिल को शाद करते हैं
सयानी सी सलिलाएं
धरती पर पसरती हैं
खेत-खलिहान लहकाते
हरी चादर बिछाती हैं
तीरथ धाम बनते हैं
घाट गुलज़ार होते हैं
नज़ारे नदियों के सारे
दिल को शाद करते हैं
जल-जीव सब पलते
ये मोती भी लुटाती हैं
बिन लालच ये सरिताएं
जन कल्याण करती हैं
सहेजो कीमती बूंदें
जिंदगी की जरूरत है
नज़ारे नदियों के सारे
दिल को शाद करते हैं
इक माँ के माफ़िक ही
फ़र्ज़ अपना निभाती हैं
जब तक आब है मौजूद
कर्ज़ हम पर चढ़ाती हैं
करके उद्धार मानव का
समन्दर में समा जाती
नज़ारे नदियों के सारे
दिल को शाद करते हैं
सरला मेहता
इंदौर
मौलिक