नट का खेल
ना देखा था कोई सपना, जब पड़ा त्यागना अपना l
कुछ फंसे जाल में ऐसे मुख सांप छछूंद जैसे ll
अंदर लेने मे मरता, बाहर लाने मे फंसता l
जब जाना रस्ता भटका, सोचा सब खेल था नट का ll
रहा भारी मन मे सोच, “संतोषी” पूछे अपना दोष l
है रचना सब भगवान की, ना पेश पड़े बलवान की ll
प्रेम से जोड़े तिनके आशा के, घर बसना था सज धज के l
बन भूचाल झूठ का आके, नट को पटका, डोर तुड़ा के ll