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2 Oct 2022 · 1 min read

नज़्म (“सज़ा-ए-मोहब्बत”)

“सज़ा-ए-मोहब्बत”

आजकल इस बाग में मायूसी पसरी रहती है
अब यहाँ की ख़ुशबुओं को मार कर
गंध ने अपना ठिकाना कर लिया है
सारे पत्ते ज़र्द होकर गिर पड़े हैं
कोई तितली भी यहाँ दिखती नहीं है अब
और
गिन रहे हैं फूल अपनी आख़िरी साँसें
प्यास के मारे परिंदे छटपटा कर मर चुके हैं
मुंतज़िर है आज भी वो झूला
झूलते थे बैठकर जिस पर कई घंटों तलक
और बातें करते थे जन्मों की हम दोनों
मुंतज़िर है फिर किसी के आने को
और मोहब्बत के वही झूले झुलाने को
हाँ मगर वो वक़्त लौटेगा नहीं वापस कभी
मैं बताने आया हूँ
अब नहीं आएगी वापस, वो यहाँ इस बाग में
मेरे सारे ख़त जलाकर राख़ कर डाले हैं उसने
अब वो रौनक बन गई है
एक सरकारी मुलाज़िम की हवेली की
और दौलत का नशा करने लगी है
अब उसे ख़्वाहिश नहीं है लौट आने की यहाँ
और न याद आती है उसको मेरी अब
कह रहा हूँ, कह रहा हूँ, बारहा मैं कह रहा हूँ
ये मोहब्बत इक सज़ा है
हाँ मोहब्बत इक सज़ा है
अब मोहब्बत तुम न करना
यार पागल तुम न बनना
अब मोहब्बत तुम न करना
यार पागल तुम न बनना

©Sandeep Singh Chouhan “Shafaq”

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