#नज़्म / पता नहीं क्यों…!!
#नज़्म:-
■ पता नहीं हम क्यों मिलते हैं?
【प्रणय प्रभात】
“किसी राह में, किसी मोड़ पर,
अनायास ही चलते-चलते।
मुरझाए गुंचे खिलते हैं,
पता नहीं हम क्यों मिलते हैं।।
एक रोज़ दूरी होना है,
बीच में मजबूरी होना है।
राह अलग मंज़िल भी जुदा है, उम्मीदें सब पज़मुरदा हैं।
कही-अनकही मनुहारें हैं,
क़दम-क़दम पे दीवारें हैं।
हर रस्ते पर अंगारे हैं,
तलवों नीचे तलवारें हैं।
पांवों में बेड़ी सी पायल,
सांसें ज़ख़्मी धड़कन घायल।
तन्हाई में ही जीना है,
घूंट-घूंट आंसू पीना है।
ग़म की आतिश में जलते हैं।
पता नहीं हम क्यों मिलते हैं?
मिलते हैं पर संग नहीं हैं,
सपने हैं पर रंग नहीं हैं।
क़दम-क़दम पर सूनापन है,
ख़ाली हसरत का दामन है।
लफ़्ज़ बहुत आवाज़ नहीं है,
पंख तो हैं परवाज़ नहीं है।
उल्फ़त है पर बेगानी सी,
बातें हैं पर बेमानी सी।
ना सुख ना दु:ख ही बांटा है,
भीड़ बहुत पर सन्नाटा है।
ना सुध है ना मदहोशी है,
एक अजब सी ख़ामोशी है।
बस ख़ामोशी में पलते हैं।
पता नहीं हम क्यों मिलते हैं।।
पल-पल कर के दिन बीता है,
रात का दामन भी रीता है।
मौसम हर दिन बदल रहा है,
दिल देहाती बहल रहा है।
बोझिल आंखों में पलते हैं,
सपने सौदागर छलते हैं।
सफ़र शुरू मंज़िल ग़ायब है,
सिर्फ़ लहर साहिल ग़ायब है।
जो जाना वो अंजाना है,
चप्पा-चप्पा वीराना है।
क्या खोना है, क्या पाना है,
बस यूं ही चलते जाना है।
पग-पग पर ख़ुद को छलते हैं।
पता नहीं हम क्यों मिलते हैं।।”