नज़र चाहत भरी
गीतिका
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नहीं वश में रहा करती हमें जब भी मिलाती है।
नज़र चाहत भरी प्रिय भावनाओं को जगाती है।
नहीं बातें करो हमसे कभी अब दूर जाने की।
मगर कुछ कोशिशें हमको सफलता ही दिलाती है।
नहीं रुकती कठिन पथ पर छलकती जा रही देखो।
अहर्निश बह चली सरिता समंदर में समाती है।
कभी तुम हार को स्वीकार कर लेना न जीवन में।
मुहब्बत भी कठिन पथ पर स्वयं राहें बनाती है।
निराशा में अकेले जब कभी विचरण किया करते।
हमेशा भावनाएं वक्त पर हिम्मत बढ़ाती है।
विरोधी भी बहुत हैं जाल फैलाते रहा करते।
कभी जब शूल से भरकर हमें राहें सताती है।
कभी फिसलन भरी राहें गिरा देती हमें जब भी।
मगर दृढ़ आस ही अपनी हथेली थाम जाती है।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य