नई सुबह
आदमी न तो अपने आप में छोटा होता और न ही बड़ा होता है I समय ही आदमी को छोटा बड़ा बना देता है I सुधीर की मां समझाती कह रही थी – ‘याद करो बेटे: वह कितनी छोटी थी और एक अन समझ गाय की नाईं बंधन सी बंधी तेरे पीछे-पीछे चल रही थी… अग्नि के सात फेरे पूरे करनेI वो समय और था; और आज… आज मैं एक डॉक्टर की माँ हूँ…डॉ.सुधीर की माँ… ‘I सुधीर के जेहन में मां के कहे शब्द बार-बार गूँज रहे थे I
गाड़ी फर्राटे मारती हुई द्रुत गति से दौड़ रही थी I सांय-सांय करती तेज हवाओं के साथ तेज बारिस में रुकने का नाम नहीं ले रही थी I कहीं वह जिन्दा है भी या नहीं; किस हाल में होगी… I अपना घर तो न बसा लिया होगा? क्या वह माफ़ करेगी भी या नही I’ तरह-तरह की शंकाएं सुधीर के ह्रदय को झकझोर रहीं थीं I विचारों के निविड़ अन्धकार में घिरा मन उथल-पुथल मचा रहा था I
पानी की तीव्र बौछारें गाड़ी की लाइट को और धुंधला रही थी I सुधीर के छक्के छूट गए फुर्ती से ब्रेक पर चढ़ गया I गाड़ी कुछ दुरी तक घिसट कर एक झटके से खड़ी हो गई I घबराहट में तन थरथरा गया I पानी की धुंध में किसी को गाड़ी के नीचे आ जाने जैसा प्रतीत हुआ I गाड़ी से बाहर उतरा तो किसी की कराह उसके कानों में उतरती गई I बिजली की चमक में देखा… एक युवती थी I घबराई छटपटाती वह उठ खड़ी हुई I झुक कर इधर –उधर वह युवती कुछ ढूढनें सी लगी I बिजली की तीव्र रौशनी हुई… टूटे शीशी के टुकड़ों पर डॉक्टर सुधीर की दृष्टि पड़ी I झुक कर टुकड़ों को उठाया I समझते देर न लगी I इंजेक्शन टूट गए थे I साहस जुटाते डॉ. सुधीर ने पूँछ लिया- कहीं चोंट तो… ? पर उस युवती ने कोई जवाब नही दिया I “शायद किसी की तवियत ख़राब… I” पुनः सुधीर ने पूँछ लिया I “बापू… I” अपनी कपकपाती आवाज में इतना ही कह पाई I डॉ. सुधीर की समझ में सब कुछ आ गया I
वह युवती बिना कुछ और कहे टूटी अधटूटी शीशी बटोरती तीव्रता से गंतव्य की ओर चल दी I पानी अब भी तेज बरस रहा था I मौसम भयावह था I अभी वह चंद कदम ही चली थी कि वह गाड़ी फिर उसके समीप रुक गयी I “रुकिए! डॉ.साहब ने कहा आप किसी उठाईगीर के पास नही हैं मैं शादीशुदा हूँ I भरोसा कीजिएगा मुझ पर I मैं नहीं चाहता कि ऐसे मौसम में आप किसी अन्होनिं में फंस जाय I” डॉ. सुधीर ने विनम्र भाव से कहा चलिए मैं आपके घर तक छोड़ देता हूँ I वह युवती डरती सहमी सी सिमट कर गाड़ी में बैठ गई Iकार आगे बढ़ गई I
वह घबरा गई, जब कार का रुख घर की ओर न होकर दूसरी ओर मुड़ गई I
‘मेरा घर उस ओर…!’ बैठे रहिये चुप चाप I डॉ. सुधीर ने बीच में ही कहा तो वह युवती पसीने में सराबोर होने लगी I ह्रदय जोर-जोर से धड़कने लगा! उसे भरोसा नहीं करना चाहिए था I एक अनजान शंका से ह्रदय थरथरा उठा I “मेरे बापू बीमार हैं भगवान के लिए मुझ पर तरस खाइए I” वह गिडगिड़ाई I “जानता हूँ.. I” डॉ.सुधीर ने उत्तर दिया I इसी बीच गाड़ी एक शानदार बंगले के सामने खड़ी हो गई I
“चलिए! उतरिये…” डॉ. सुधीर ने कहा तो मानो उसकी सांसें रुकने लगी हों I दो कदम बढ़ाये और द्वार पर ही ठिठक कर रुक गई I
“अन्दर आइये…रुक क्यों गई? मां जी हैं अन्दर… I डॉ.सुधीर ने कहा I किन्तु वह अन्दर जाने को भरोसा न कर पा रही थी I ‘धोखे से यहाँ और अन्दर ले जाना चाह रहा है I उसे शंका होने लगी I तभी दृष्टि सामने पड़ी तो सचमुच एक बूढी सी महिला द्वार पर रुकी और बोली- “कौन है यह” मां की कड़कती आवाज उस युवती के कानों में उतरती चली गई- “यहाँ क्यों लाया… I” बूढी महिला ने फिर पूछा I
“माँ जी, डॉ. सुधीर ने उत्तर दिया. अचानक मेरी गाड़ी के नीचे आ गई! भगवान का शुक्र है… ये सकुशल बच गई I” डॉ. सुधीर ने मां को सफाई दी I
मां ने अपनी पैनी दृष्टि युवती के चेहरे पर गड़ाई तो युवती कांपती सी बोली – “मां जी इन्होने विश्वास दिलाया था कि ये शादी शुदा हैं… धोखा न करेंगे I मेरे बापू बीमार हैं I दवा लेने आई थी I मैं फिसल गई और…” कहते–कहते रुकी I
“गले में मंगल सूत्र… शादी शुदा हो I” मां जी ने टोक कर पूँछ लिया I किन्तु युवती के होंठ थरथरा कर ठहर गए… चाह कर भी कुछ न कह सकी I आँखों में आंसू उसकी वेदना बयां करने लगे I
थोड़ी देर में डॉ.सुधीर बाहर निकले I वे उस युवती सहित वापस जाने को उद्धत हुए तभी मां जी बोली- “ठहरो… I कहती अन्दर चली गई I
पल भर में लौट कर आई तो उनके हाथ में लाल किनार की धोती थी I “बदल आओ अन्दर से I” जैसे उस युवती को माँ ने आदेश दिया हो I इन गीले कपड़ों में कहीं कुछ हो गया तो…” अपनत्व भरे लहजे में कहा तो युवती सकुचाई I “सोच क्या रही मेरे पहनने की है, जाओ I” मां ने कहा तो वह बात टाल न सकी I थोड़ी देर में कपडे बदलकर बाहर आ गई I चलते हुए युवती ने मां की ओर कृतज्ञता पूर्ण हर्षाई दृष्टि डाली तो प्रति उत्तर में मां जी के चेहरे पर प्रसन्नता की हलकी लकीर उभरी I “नाम क्या है बेटी…” मां जी ने पूंछ लिया I
“जी उर्मिला…” कहती उर्मिला ने सुधीर के पीछे पीछे कदम बढ़ा लिए I उर्मिला का नाम बार–बार दोहराती माँ जी अपनी स्मृति पर जोर डालने लगी I
डॉ. सुधीर उर्मिला के घर पहुंचे I उर्मिला ने डॉ.सुधीर को अन्दर आने के लिए इशारा किया I डॉ. सुधीर अन्दर वहां तक गए जहाँ उर्मिला के बापू चारपाई पर पड़े थे I डॉ.सुधीर ने देखा हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया था I डॉ.सुधीर ने नब्ज पर हाँथ रखा, बहुत तेज बुखार था I सांसे धौकनी की नाई तेज–तेज चल रही थी I
“आप…आप डॉक्टर हैं…” विस्मय से उर्मिला ने पूँछ लिया- “ठीक हो जायेंगे…” उर्मिला ने फिर डॉ. की ओर मुखातिब होते हुए कहा- “बापू हैं मेरे इनके सिवाय मेरा और कोई नहीं है I”
“ऊपरवाला तो है भरोषा रखिये सब ठीक हो जायेगा I” डॉ. साहब ने दिलासा देते हुए ढाढ़स बधाया I
“आंसू बहाते-बहाते आँखे ही गवां दी I उर्मिला ने कहा- “जरा ओझल हुई तो आँखों में आंसू… I”
“यूँ ही बकती रहती है साहब…” बापू ने भ्रम छुपाते हुए कहा- “मैं ऐसा क्यों करूँगा I मैं तो जरा भी नहीं रोता हूँ… I”
“यह सब मेरी वजह है डॉ.साहब I” उर्मिला ने कहा- तो डॉक्टर साहब ने गौर से उर्मिला को निहारा… माथे पर बिंदी, मांग में सिंदूर, गले में मंगल सूत्र और पाँव में बिछिया उसके विवाहित होने के मूक दास्ताँ कह रहे थे I
डॉक्टर साहब ने कहा- “आप ससुराल चली जाएँगी फिर… I” “कौन ले जायेगा इसे ससुराल डॉ.साहब I” बापू बीच में ही बोले- “अब तो स्वप्न सी बातें लगने लगी हैं I” “क्यों…?” डॉक्टर साहब ने पूंछा- “ऐसी भी क्या बात है I”
“डॉक्टर साहब, बचपन में ही उर्मिला की शादी कर दी थी …I” बापू उर्मिला की दास्ताँ कहने लगे – “उस समय लडके वाले तंगहाल और मैं ठीक था इसलिए मैं गुरुर में था I अपनी झूंठी शान में भूल गया था कि मैं लड़की वाला हूँ वह लडके की माँ थी… विधवा मां… I क्या कुछ नहीं कहा था उसे और वह चुपचाप सुनती रही I अपमान सहती रही I बहुत अपमानित किया मैंने I तब से आज तक दुबारा पलट कर न देखा उसने I मैं खोजता रहा I मगर कोई पता न चला अब कैसे और कहाँ ढूँढूं… अब तो ऐसे लगने लगा जैसे एक जन्म बीत गया हो I अब किसके साथ कहाँ भेजूं क्या करूँ मैं… I कहते बापू का गला रुधने सा लगा I आँखों में आंसू डबडबाने लगे I डॉ.सुधीर अतीत में खो गए I “इसमें बापू का भला क्या दोष I” उर्मिला कह रही थी… तक़दीर के आंगे किसकी चलती है I डॉ.साहब की विचार भंगिमा टूटी- “दुर्भाग्य मेरा ही है I अब इस दरिद्रता की मूर्ति को भला कौन ले जाकर अपने घर में सजाएगा I बची खुची जिंदगी जैसे कटेगी… काटना ही पड़ेगी I” आवाज भारी होने लगी उर्मिला की I
“यह भी तो हो सकता है कि आप लोगों जैसा लडके वाले भी सोच रहे हों उन्हें भी आप लोगों से मिलने का इंतजार हो I” डॉ.साहब ने कहा तो उर्मिला बोली- “झूंठी दिलासा में ही जी रही वरना कब की… I” कहते रुक गयी उर्मिला I “ऐसा नहीं सोचते! साहस और विश्वास कभी निष्फल नहीं जाते I” डॉ साहब ने हिम्मत बढ़ाते कहा-“ लम्बी गहन अंधियारी रात के बाद चमकती सुन्दर सुबह जरुर आती है I” डॉ.साहब के ह्रदय में भी अजीब हलचल हो रही थी I
“डॉ. साहब फीस…” कहती हुई उर्मिला कुछ पैसे निकल कर डॉ.साहब को देने के लिए उद्धत हुई I “फिर कभी” इतना कहते हुए डॉ.साहब बाहर निकल गए I टकटकी लगाये उर्मिला देखती रह गयी I
दिन पश्चिम की ओर ढलने लगा था I प्रतीक्षा करते-करते उर्मिला की आँखें पथरा रहीं थी I बार-बार ह्रदय में गुबार उठ रहे थे I आशा-निराशा के अंतर्द्वंद में उलझी टकटकी लगाये उर्मिला बाहर घूर रही थी I
वह हैरान रह गयी जब अचानक दरवाजे के सामने कार आकर रुक गयी I उसमे से वही महिला सहित डॉ.साहब बाहर निकले I उर्मिला का ह्रदय तेजी से धड़क उठा I माँ जी को समझते देर न लगी I जैसे वह प्रतीक्षा में ही दरवाजे पर खड़ी थी I अप्रत्याशित आश से उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा I अपने आप पर काबू न कर पा रही थी I आँखों में आंसुओ के दीपभरभरा उठे I भर्राई सी आवाज में आगे बढ़कर उर्मिला आश्चर्य में बोली – “आप मां जी I”
प्रेमातुर मां जी ने अपनी बाँहों में भर कर समेट लिया I बार-बार सर पर हाँथ फेरने लगी I सांत्वना देने लगी I पर उर्मिला की सिसकियाँ रुकने का नाम न ले रही थी I वह नहीं समझ पा रही थी कि माँ जी के ममत्व पूर्ण स्नेह का कारण I माँ जी अपनि दृष्टि इधर-उधर ऐसे डाल रही थी मानों कुछ ढूंढ रही हों I
“बेटी तुम्हारे बापू I” उर्मिला से पूंछा और दो-चार डगें अन्दर बढाई तो देखा कि उर्मिला के बापू दीवार से सर टिकाये सुबक-सुबक कर रो रहे थे I
“आप रो रहे हैं उर्मिला के बापू… I पुरुष हो कर भी… I” मां जी ने कहा और बापू अपने आप को रोक न पाए I वह माँ जी के पैरों पर गिर गए I
“अरे यह क्या कर रहे वक्त के तकाजे सहर्ष स्वीकार करो I” माँ जी ने कहा- तो बापू की आँखों में अविरल अश्रुधारा बहने लगी बोले- “मैं तो क्षमा के काबिल भी नहीं I”
अब उर्मिला से विचारों की धुंध छटने लगी I उसकी समझ में सब कुछ आने लगा I “शायद माँ जी से इन्होने बापू की कही बातें बता दी होंगी I” उर्मिला ने मन ही मन कहा ! उर्मिला के बहते आंसुओं की ओर डॉ.सुधीर ने देखा तो उर्मिला की नजर भी डॉ.साहब की ओर गयी I डॉ.साहब भेद भरी मुस्कान से उर्मिला तिलमिला उठी I चेहरे पर लज्जा उठी तो शरमाई सी अपने आप को छुपाती अन्दर चली गई I
धनीराम रजक, बल्देवगढ़ (टीकमगढ़)