नई बहू
नई बहू
“बेटा रमेश, मेरे चश्मे का ग्लास घिसकर बहुत खराब हो गया है। आज ऑफिस से लौटते समय याद से एक नया चश्मा लेते आना।”
“हां दादी, सॉरी मैं कल लाना भूल गया था। आज याद से लेते आऊंगा। सुमन, प्लीज़ मुझे आज शाम को ठीक साढ़े पांच बजे के आसपास फोन कर के याद दिला देना कि दादी मां के लिए नया चश्मा लाना है।”
“ठीक है, पर आप बिना डॉक्टर को दिखाए कैसे चश्मा लाएंगे।”
“अरी बहू, इसकी कोई जरूरत नहीं है। दो साल पहले ही डॉक्टर को दिखाया था। उसी नंबर का चश्मा लगाने से मेरा काम चल जाता है। और फिर रमेश के पास इतना समय कहां है कि मुझे डॉक्टर को दिखा सके।”
“ठीक है दादी मां। रमेश जी के पास समय नहीं है, पर आपके और मेरे पास तो है। मैं ले चलूंगी आपको डॉक्टर के पास। यूं बिना डॉक्टर को दिखाए कई साल एक ही नंबर का चश्मा पहना ठीक नहीं है।”
“क्या कहा ? मुझे तुम लेकर जाओगी डॉक्टर के पास ?”
“हां दादी मां, इसमें इतने आश्चर्य की क्या बात है ? मैं अपने मायके में कई बार अपनी दादी मां, नानी मां, मां को हॉस्पिटल ले जा चुकी हूं। अब आपको भी ले जा सकती हूं।”
“क्या सोच रही हो दादी। सुमन तुम्हें बड़े ही आराम से डॉक्टर के पास ले जा सकती है। वह पढ़ी-लिखी और आज के जमाने की लड़की है। मैं तो चाहता हूं कि सुमन के साथ तुम और मां भी हर दूसरे-तीसरे दिन सब्जी मार्केट जाकर ताजी सब्जियां भी लेती आओ। इससे मुझे भी थोड़ा-सा आराम मिलेगा और कुछ देर बाहर घूमने-फिरने से आप लोगों का भी मूड फ्रेश रहेगा।”
“हां बेटा, तुम सही कह रहे हो। ये बात तो मेरे दिमाग में कभी आई ही नहीं। सुमन बेटा, तुम डॉक्टर से आज ही दादी मां के लिए अपाइंटमेंट ले लो। लौटते समय सब्जी मार्केट से कुछ ताजी सब्जियां भी लेती आना।”
सबके चेहरे खुशी से चमक रहे थे।
-डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़