नई फरेबी रात …
नई फरेबी रात …
छोडिये साहिब !
ये तो बेवक्त बेवजह ही
ज़मीं खराब करते हैं
आप अपनी अंगुली के पोर
इनसे क्यूं खराब करते हैं।
ज़माने के दर्द हैं
ज़माने की सौगातें हैं
क्योँ अपनी रातें
हमारी तन्हाई पे खराब करते हैं ।
ज़माने की निगाह में ये
नमकीन पानी के सिवा कुछ भी नहीं ।
रात की कहानी ये भोर में गुनगुनायेंगे ।
आंसू हैं,निर्बल हैं
कुछ दूर तक आरिजों पे फिसलकर
खुद-ब-खुद ही सूख जायेंगे ।
हमारे दर्द हैं
हमें ही उठा लेने दीजिये
आप आये हैं तो महफ़िल में
तबले की थाप पे
घुंघरू की आवाज़ का मज़ा लीजिये
साजिंदों के साज पे
तड़पते नग्मों का साथ दीजिये ।
शुक्र है इन घुंघरुओं का
जो अपनी झंकार में
पाँव के दर्द पी जाते हैं
इनकी आवाज के भरोसे
हम कुछ लम्हे और जी जाते हैं ।
अपने कद्रदानों की हर वाह पे
हम जाँ निसार करते हैं
जानते हैं फरेब है
ये शब् भर की महफ़िल
फिर भी ये कम्बख्त घुंघरू
इक नई फरेबी रात का इंतज़ार करते हैं ।
सुशील सरना/