नई जैकेट , पुराने जूते
नई जैकेट, पुराने जूते
जागृति का बोस्टन से फ़ोन आया,
“ माँ , मैं डिलीवरी के लिए इंडिया नहीं आ रही।”
“ क्यों ?”
“ मनोज का कहना है बच्चे के लिए अमेरिकन सिटीजनशिप ज़रूरी है, वो यहाँ पैदा होगा तो उसको अपने आप यहाँ की नागरिकता मिल जायेगी , नहीं तो वह भी हमारी तरह धक्के खायेगा, फिर हमारी हैल्थ इंश्योरेंस में यहाँ सारे खर्चे भी कवर हो जायेंगे । “
“ फिर?”
“ फिर क्या, आप दोनों चार महीने के लिए यहाँ आ जाओ ।”
“ यह कैसे हो सकता है, तुम्हारे पापा अपना काम इतने दिनों के लिए कैसे छोड़ सकते हैं , और मुझे सर्दी में मुश्किल होती है। दिसंबर में सब तरफ़ बर्फ़ होगी वहाँ । “
“ तो क्या दिल्ली में सर्दी नहीं होती दिसंबर में ? यहाँ घर में तो आपको स्वेटर भी नहीं पहनना पड़ेगा , सेंट्रल हीटिंग सिस्टम है , दिल्ली में तो घर में भी ठंडी होती है। “
माँ चुप हो गई। पीछे से पापा ने कहा, “ आ जायेगी तेरी माँ , मैं भी एक महीना लगा जाऊँगा । “
फ़ोन समाप्त होने पर माँ ने कहा, “ यहाँ हमारे पास किस चीज़ की कमी है। खाना बनाने वाली, सफ़ाई वाली सभी तो हैं हमारे पास । वहाँ सारा काम खुद करना पड़ेगा । यहाँ जान पहचान के डाक्टर हैं, सारे बिल हम दे देंगे। मैंने तो मसाज वाली से बात भी कर रखी है। क्या अमेरिका की सिटीजनशिप इतनी ज़रूरी है ?”
पापा ने जवाब नहीं दिया, बस मुस्करा दिये ।
दिसंबर में बोस्टन पहुँचे तो माँ से ज़्यादा पापा की जान निकल गई। आते ही सबसे पहले उन दोनों को फ़्लू शाट लेने पड़ गए । उनके चेहरे का रंग एकदम उड़ गया । पूरा एक सप्ताह हो गया था और वह घर से बाहर नहीं निकले थे। शांट्स की वजह से उन्हें हल्का बुख़ार चल रहा था ।
मनोज का अस्पताल से फ़ोन आया, “ बेबी हो गया है। माँ और बच्चा दोनों स्वस्थ है, अगर वे चाहें तो वह उन्हें घर लेने आ सकता है। ख़ुशी से माँ पापा की आँखें चमक उठी, “ हाँ ले जाओ ।” माँ ने कहा । उन दोनों ने गर्म कपड़ों की कई तहें पहन ली , फिर भी , दरवाज़े से कार तक आते आते ठंडी में उनका आत्मविश्वास डोल गया।
पापा किसी तरह तीन हफ़्ते और रहकर चले गये । माँ सुबह उठती और घर के कामों में लग जाती, रोज़ सोचती, आज थोड़ा बाहर घूम आऊँगी, परन्तु इससे पहले कि काम ख़त्म होते, चार बजते न बजते अंधेरा हो जाता । वह खिड़की से बाहर फैली बर्फ़ देखती और सोचती, एक दिन जाकर अच्छे जूते और जैकेट ले आऊँगी। पर वह दिन भी टलता रहता , जागृति बच्चे के साथ रात रात भर जागती थी, मनोज का आफ़िस फिर से शुरू हो गया था, उसको देख कर लगता था , पता नहीं कब से नहीं सोया है , वह कह ही नहीं पा रही थी, उसके पास सही जूते और जैकेट हों तो वह शाम को घूमने के लिए निकल सकती है, जो उसके मानसिक स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है ।
एक दिन जागृति ने कहा,” तुम्हें नानी बनने की विशेष ख़ुशी नहीं हुई ।”
माँ मुस्करा दी, “ ऐसा होता है क्या कभी, नानी बनने से बड़ी कोई ख़ुशी नहीं होती ।”
“ जब तुम दादी बनी थी , तब तो तुम्हारे चेहरे पर अलग ही ख़ुशी थी, अब हम तुम्हारे लिए कुछ भी कर लें फिर भी उदास सी ही दिखती हो ।”
माँ मुस्करा दी । मैं खुश हूँ, तेरा घर, बच्चा, इससे ज़्यादा हमें क्या चाहिए? हाँ, तुम्हारा भाई भाभी को लेकर हमारे पास आया था, वह मेरा अपना परिवेश था, पापा भी साथ थे, बाक़ी सब लोग भी थे , हमारा घर भर गया था, जीवन के जो अर्थ हमने चाहें थे , हमें मिल गए थे । “
“ तो यह भी तो तुम्हारा घर है।”
“ हाँ , बिल्कुल है। पर यह घर मेरे लिए नया है । सर्दी में तो यहाँ अच्छे ख़ासों को डिप्रेशन हो जाता है, फिर मैं अगर चुप हो गई हूँ तो इतनी हैरानी क्यों है ?”
जागृति ने जवाब नहीं दिया, और बाथरूम चली गई । वापिस आई तो माँ के सामने खड़े होते हुए कहा,
“ तुम इस् तरह उदास रहती हो तो मनोज को अच्छा नहीं लगता ।”
माँ मुस्करा दी, “ मनोज से कहना , हमारा स्वभाव इकट्ठा रहने के लिए बना है, अमेरिका की सिटीजनशिप लेने के लिए नहीं । इस बनावटी इच्छा के लिए मैं असली ख़ुशी कहाँ से लाऊँ ?”
शाम को मनोज आया तो उसके हाथ में जैकेट थी । जैकेट की गर्मी महसूस कर वह भाव विभोर हो उठी ।
“ मैं कब से आपको बाज़ार ले जाकर विंटर वारडरोब की शापिंग कराना चाहता था, पर समय ही नहीं मिल रहा था, आज माल के आगे से गुजर रहा था तो आपके बिना यह जैकेट ले आया, उम्मीद है आपको पसंद आई होगी ।”
“ बहुत ।” और उसने मुस्करा कर मनोज के माथे पर चुंबन दे दिया ।
मनोज ने एटिक से जागृति के लैदर के बड़े जूते निकाल दिये , जो माँ को दो जोड़ी मोटी जुराब पहनने के बाद पूरे आ गए ।
माँ सब पहन के बाहर निकलीं तो अंधेरा फैल चुका था और स्नो फ़ॉल हो रहा था, माँ को कहीं पढ़ा याद आ गया , ‘मौसम कभी ग़लत नहीं होता, हमारे वस्त्र ग़लत होते है । ‘आज वह पुराने जूते और नई जैकेट पहनकर जीवन में पहली बार स्नो फ़ॉल का सुखद अनुभव ले रही थी, दिल्ली में बड़ा सा घर , नौकरों चाकरों की सुविधाओं को धुंधला होने की इजाज़त दे रही थी। बच्चों की बदलती ज़रूरत के हिसाब से ढल रही थी । खुलकर मुस्कुराना अभी भी कठिन था, पर वह कोशिश कर रही थी।
—-शशि महाजन
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