नई कविता
नई कविता
गुमनाम गलियों में, कुछ बाते कहीं खो गई है।
भाव मर गए , लोग बहरे होरहें , दर्द गूंगे …कविताएं मर रही है, गीत बिक रहे
अपने मासूम बचपन को तलाशते ,
बच्चे आज भी,
आज भी तरसते किताबों को।
मजदूर की आवाज,
कारखानों के सायरन में दब गई।
नायिका की होठों की सुर्खियां ,थोड़ी बढ़ी है।
चौराहों पर औरतों की अस्मिता, कुचली गई।
कुछ लोगों ने खड़ा होना सीख लिया है,
कुछ खड़े लोग अब लेट गए हैं,
कुछ घरों में नए दरवाजे हैं और , न्याय के दरवाजे पर नए ताले,
झगरू और मंगू , कचहरी में नहीं दिख रहें,
क्योंकि सके , सेवा
कुछ काम कर रहे कुछ ,घर बैठे बैठे है ।
, थैला छोटा गया ,
नोट पहले से बड़ा ,
सरकार का पोषण प्लान बढ़ा है
पर आदमी कमजोर हुवा
,काम के घंटे बढ़ गए , बच्चों के खेल बंद हुए,
युवा खेल रहे आजकल अपनी किस्मत के साथ।
सरिता सिंह गोरखपुर