धूल
लघुकथा
शीर्षक – धूल
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– ” पापा, सब्जी ही ला दिया करो बाजार से ऎसा कब तक चलेगा”
– ” अरे पापा, कम से कम साफ सफाई का ध्यान तो रखो आपने बाथरूम और कमरे की क्या हालत बना रखी है”
– ” क्या हाल बना दिया है आपने इस आलीशान बंगले का, ऎसा करिये सर्वेंट क्वॉर्टर में चले जाइए”
– ” शहर के खर्चे तो आप जानते ही हैं…एक कमाने वाला.. ऊपर से आपकी दवाई, खाना खर्चा ,,, बहुत मुश्किल है पापा”
बहू व बेटे की बातें मन-मष्तिस्क में रह-रह कर गूंज रहीं थी, किन्तु बस के हॉर्न से सुधीर की तंद्रा टूटी शायद उसका गाँव आ गया था, गाँव की सोंधी खुश्बू और हवा से सुधीर अच्छा महसूस कर रहे थे.. – ‘अब यहां कोई दिक्कत नहीं न कोई ताने न कोई रिश्ते… पुरखों की कुछ जमीन है उसी से किसी तरह गुजारा कर लेंगे ‘ –
सुधीर ने घर का ताला खोला , देखा मकड़ी के जाले साफ गवाही दे रहे थे मानों वर्षो से बन्द पड़ा हो, हर चीज पर धूल ही धूल..
कहीं पढ़ा था कि मकड़ी के जाले होना समस्याओं व मानसिक उलझनें होने का प्रतीक होते हैं, सो सुधीर जाले हटाने में जुट गए … तभी किसी चीज से पैर टकराया… वह एक तस्वीर थी माँ बापू की जिस पर धूल जमी हुई थी… सुधीर ने धूल हटाई तो यादें परत दर परत खुलती ही चली गई… मानो दोनों कह रहे हों … क्यो सुधीर वहीं आ गए जहाँ मुझे छोड़ कर गए थे…..
-” नहीं, मां-बापू मैं तो घूमने गया था, तुम्हें कैसे छोड़ सकता हूँ ,,,,, ” – कहते हुए तस्वीर को करीने से दीवाल पर सजाकर पूरे घर की सफाई में जुट गए।
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राघव दुबे
इटावा
8439401034