‘धूप-छाँव का सफ़र’
जिन्दगी का सफर जिस राह से होकर गुजरता है,
कभी धूप तो कभी छाँव की सीढ़ी पर चढ़ता उतरता है।
तपता लोहार की धौंकनी में कभी ,
कभी चाँदनी की नौका में विचरता है।
स्वप्न घने बुन लेता ताने बाने के घेरों में,
फिर धागों में उसके उलझता सुलझता है।
अपनों के नेह में लिपट-लिपटकर, बार-बार गलता-पिघलता है,
तन छालों से छलनी बन जाता तो, रोता हुआ निकलता है।
-गोदाम्बरी नेगी