* धीरे धीरे *
** गीतिका **
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धीरे धीरे खोल दीजिए, बंद पड़ी अलमारी को।
रहें सुरक्षित सारी चीजें, पूर्ण करें तैयारी को।
लेकिन मन में राज हमेशा, कहां सुरक्षित रह पाते।
कहां रखें ताले चाबी में, जीवन की लाचारी को।
बूढ़े कंधों पर भी देखो, बोझ बढा है कर्जों का।
कौन चुकाएगा अब कैसे, बढ़ती नित्य उधारी को।
दायित्वों का बोझ बहुत है, कम होने का नाम नहीं।
फिर भी देखो सहन कर रहा, अपनी हर बीमारी को।
कैसे कैसे निभ पाएगी, हर मुश्किल आसान नहीं।
बड़े शौक से देख रहा है, बढती दुनियादारी को।
कदम मिलाकर इस जीवन में, हर पल अपने साथ चले।
किन्तु कभी भुला नहीं पाते, सूरत प्यारी प्यारी को।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य