धर्म
अपने अंतिम क्षणों में सरसैया पर पड़े हुए भीष्म पितामह ने पांडवों को धर्म की परिभाषा बताते हुए कहा कि धर्म, अपने कर्तव्यों और दूसरों के अधिकारों के बीच संतुलन है। धर्म, स्वयं कष्ट सहकर भी दूसरों को सुखी जीवन जीने का मार्ग प्रदान करना है। धर्म किसी भी प्राणी को पीड़ा ना पहुँचाना ही नहीं, अपितु सभी को सर्वोत्तम सम्भव सुख शांति उपलब्ध कराना भी है। धर्म, देश की सेवा करना है। धर्म, देशहित में चिंतन करना है। धर्म, देश है। धर्म, देश से बड़ा नहीं है। केवल वही व्यक्ति सच्चा धार्मिक है जो देश को ही अपना धर्म मानता है। अपने प्रिय पौत्रों को समझाते हुए, आदरणीय महात्मन ने कहा कि किसी भी परिस्थिति में देश का, मातृभूमि का बँटवारा करने की भूल नहीं करनी चाहिए।
उन्होंने देश को बाँटने की भूल की थी जिसका परिणाम महाभारत जैसा युद्ध निकल कर आया, जिसका मूल्य समस्त संसार के वीरों ने अमूल्य प्राण देकर चुकाया। उन्होंने पूँछा कि क्या वे पाँचों भाई अपनी माता कुन्ती का आपस में बँटवारा कर सकते हैं, यदि नहीं तो मातृभूमि का बँटवारा करने पर कैसे लोग सहमत हो जाते हैं।
भीष्म पितामह ने पाण्डवों को बार बार जोर देकर समझाया कि कभी भी मातृभूमि का बँटवारा करने की परिस्थिति आ जाए तो बँटवारे की बजाय कुरुक्षेत्र का चयन कर लेना चाहिए।
जब 1947 में हमारा देश अंग्रेजों के चंगुल से छूट रहा था तो उस समय के देश के कर्णधारों ने न जाने ऐसी भूल कैसे कर दी। न जाने ये महानुभाव कैसे मातृभूमि के बँटवारे को विवश हो गए। क्या उन्हें अपने पुराणों की इस कथा का ज्ञान नहीं था अथवा वे पुराणों में श्रद्धा व विश्वास नहीं रखते थे। यदि उस समय कोई परम शक्तिमान देशभक्त धर्मावलंबी देशहित में, इस बँटवारे के विरोध में खड़ा हो गया होता तो स्वतंत्रता के पश्चात 1965 के युद्ध का और उसके पश्चात न जाने कितने छोटे मोटे छद्म युद्धों का प्रश्न आए दिन खड़ा ही नहीं होता।
अब भी सचेत हो जाएं तो पूर्वजों की इस भूल में सुधार कर सकते हैं , अपने अंग के टुकड़े को पुनः शल्य क्रिया द्वारा शरीर में जोड़ा जा सकता है।
संजय नारायण