धर्म कर्म
मेरा धर्म नहीं सीमित,
किसी जात पात में,
मेरा धर्म नही चिन्हित,
किसी समाज के संप्रदाय में!
मेरा धर्म सिखाता मुझको,
मानव संग जीवन जीना,
मानव के दुख दर्द में,
शामिल होकर उसका मर्म समझना!
ऊंच नीच का भेद ना हो,
अमीर गरीब में न बंटना,
जो भी है अपने पल्ले,
उसी में संतोष भी करना,!
शरहद की सीमाओं से आगे,
ना हम किसी में झांके,
ना कोई अपनी सीमाओं को लांघे!
बना रहे सौहार्द सभी से,ऐ
और ये भाई चारा,
कुल्सित मन ही ,
सारे फिसाद की जड,
जो कर जाता बंटवारा!
क्या हम लेकर आए हैं,
और क्या लेकर है जाना,
नाम पहचान भी यहीं तक सीमित,
मिलता नहीं जब तक छुटकारा!
कर्म आधार है ऊंच नीच का,
यही है अपना साथी,
इसी कर्म से बने पहचान,
अच्छे और बुरे की!
चार दिन की चकाचौंध में,
क्यों कुछ ऐसा कर जाना,
जो मर कर भी कोशा जाए,
ऐसा क्या कमाना!
सच्ची कमाइ, जग भलाई,
क्यों ना ऐसा कर जाएं,
मानवता के लिए जीएं,
और मानवता पर मर मीट जाएं!
मानव धर्म ही सबसे बड़ा,
और इसी को जीना माना,
मानव सेवा करते करते,
हो इस धरा से जाना!