धर्म, अंधश्रद्धा : आप और हम… (पुरुषोत्तम लक्ष्मण देशपांडे की पुस्तक ‘एक शून्य मैं’ से)
*पुरुषोत्तम लक्षमण देशपांडे (जन्म-8 नवंबर1919, मृत्यु 12 जून 2000) लोकप्रिय मराठी लेखक, नाटककार, हास्यकार, अभिनेता, कथाकार व पटकथाकार, फिल्म निर्देशक और संगीतकार एवं गायक थे. उन्हें ‘महाराष्ट्राचे लाडके व्यक्तिमत्त्व’अर्थात महाराष्ट्र का लाड़ला व्यक्तित्वह्ण कहा जाता है. महाराष्ट्र में उन्हें प्रेम से पु. ल. कहा जाता है. उन्हें भारत सरकार द्वारा सन 1990 में कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था. उल्लेखनीय है कि वे सारस्वत ब्राह्मण होने के बावजूद क्रांतिकारी विचार रखते थे. उनका यह मराठी लेख मेरे वरिष्ठ सहकर्मी रवींद्र चोपड़े जी ने फेसबुक पर भेजा था, जिसे पढ़कर मैं इतना प्रभावित हुआ कि उसका अनुवाद कर आपके सामने पेश करने के लिए बाध्य हुआ.
एक तो धर्म, ईश्वर और पूजा-पाठ में मेरी कभी भी रुचि रही नहीं. मूर्तिकार के कौशल के तौर पर ही मुझे मूर्तियों को निहारना अच्छा लगता है. जबसे मैं बड़ा हुआ, चीजों को समझने लगा, तब से मैंने किसी भी मूर्ति को प्रणाम नहीं किया. पूर्व जन्म, पुनर्जन्म जैसी मिथ्या संकल्पनाओं पर मेरा विश्वास नहीं है. मुझे इस बात में जरा सा भी संदेह नहीं है कि ईश्वर, धर्म की संकल्पनाओं का इस्तेमाल धूर्त सत्ताधीशों ने सिर्फ दहशत फैलाने के लिए किया है.
यदि हमारे देश में अनगिनत संतों के स्थान पर लौकिक जीवन को और विज्ञान को आगे बढ़ाने वाले वैज्ञानिकों ने जन्म लिया होता तो यह देश कहीं ज्यादा सुखी होता. मेरा मानना है कि किसी भी संत की तुलना में शल्यक्रिया (आॅपरेशन) को दर्दरहित बनाने वाला एनेस्थीसिया का आविष्कारक अधिक श्रेष्ठ है.
विज्ञान जन्मजात उच्चता, न्यूनता को नहीं मानता. सत्य का दर्शन कराने वाले वैज्ञानिकों का, ईश्वर का नाम लेने वाले धर्मगुरुओं तथा उनकी दहशत तले रहने वाले अपढ़ राजाओं ने लोगों का सर्वाधिक उत्पीड़न किया है.
धर्म-धर्म का ढिंढोरा पीटने वाले लोगों के बराबर सत्य एवं वास्तविकता के दूसरे शत्रु नहीं होंगे. ऐसे लोग पत्नियों को पति की चिता पर जीवित जला देंगे, नरबलि देकर अपने राजमहल व मंदिरों का अस्तित्व बनाए रखेंगे, किसी को अस्पृश्य कहेंगे, किसी को बहिष्कृत कर देंगे, जो बन पड़ेगा वह सब करेंगे. धर्म एवं पंथ के मिथ्या अभिमान-दुराभिमान के कारण दुनिया में मनुष्य का रक्त सबसे अधिक बहा है. इस पूरी उठापटक और रक्तपात के बाद भी अंत में नए हुकुमशाहों का ही उदय हुआ दिखाई देता है.
हमारा इतिहास मुख्यत: राजाओं द्वारा प्रदेश पर अधिकार जमाने के लिए की गई लड़ाइयों, जय-पराजय का इतिहास है; और प्रत्येक विजयी राजा के भाट-चारणों की यह प्राचीन परंपरा आज भी किस तरह टिकी हुई है, यह हम देख ही रहे हैं. विजयी राजा के भाट-चारणों ने उसमें छुपे सत्य पर स्तुति स्तोत्र का इतना बड़ा आवरण चढ़ा दिया है कि भूतकाल के ऐसे मानवों के व्यक्तित्व को ढंकने वाले शब्दों के अलंकरण को ही हम इतिहास समझ बैठते हैं.
यह बड़ी त्रासद बात है कि आज भी इस देश में बुद्धि और सबूत को गवाह रखकर भी कुछ लिखना और बोलना साहस का काम है.
हां हमारे देश में नाम महात्म्य को बहुत बड़ा स्थान प्राप्त है. नामस्मरण से मानव जीवन तर जाता है, सफल हो जाता है. विडंबना देखिए कि इसे श्रद्धा का नाम दिया जाता है. अगर सवाल किया जाए कि तर जाने का क्या अर्थ है, इसका कोई ठीक से उत्तर नहीं मिलेगा. अंधश्रद्धा से ग्रस्त समाज में किसी भी घटना को परखने की शक्ति ही शेष नहीं रहती. मुट्ठी भर लोगों के स्वार्थ के लिए ही भाषा का उपयोग व्यापक रूप में किया जाता है. उच्चार एवं आचार में मेल न होने का दु:ख किसी को नहीं. हमारे वेदों की प्रार्थना-‘सहनाववतु सहनौ भुनक्तु’ इसमें वर्णित मानवता के विषय में जोर-जोर से बोलना और ‘सहनाववतु’ कहते समय ‘दूर हो, अपवित्र हो जाएगा.’ कहकर मनुष्य का तिरस्कार करना, इतने पर भी वेद श्रेष्ठ तो श्रेष्ठ ही. और तेजी से इसका उच्चारण करने वाले उनसे भी श्रेष्ठ. है न अजीब बात?
सरकार की ओर से उन्हें शॉल भेंट में देने वाले और भी श्रेष्ठ. सुबह रेडियो शुरू करते ही ईश्वर दीन-दुखियों का सहारा है, यह कोई न कोई सुरताल में बताता रहता है; और गैलरी में आने पर घर के सामने लगे कचरे के ढेर में लावारिस छोटे-छोटे बच्चे बासा भोजन ढूंढते हुए दिखाई देते हैं. उस ईश्वर पर और ईश्वर की गुणवान करनेवाले व्यासपीठ पर विराजमान लोगों पर शब्द-विशेषणों, फूलों और रुपयों की बरसात जारी रहती है. दुर्भाग्य से वास्तविकता को विशेषण स्वीकार नहीं होते.
कल्पनाशक्ति के लिए ये पोषक सिद्ध होते हैं. अस्पृश्य लोगों को ‘हरिजन’ कहने से जादू का मंत्र उच्चारण करने के समान अस्पृश्यता नष्ट हो जाएगी ऐसा मानना अथवा महिलाओं को ‘देवी’ कहने मात्र से उनकी गुलामी नष्ट हो जाएगी, ऐसा मानकर चलना, वास्तविकता से दूर रहने वाली बात है.
पुणे की फुले मंडई में भाई-भतीजावाद विरोधी सत्यशोधकों के नाम पर सार्वजनिक सत्यनारायण की कथा पढ़ी जाती है. लोग तीर्थ प्रसाद ग्रहण कर धन्य हो जाते हैं और दिनोंदिन इस अंधश्रद्धा को शासन द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है.
मैंने अपने जीवन के 60 वर्ष पूरे कर लिए हैं परंतु विगत कुछ वर्षों में मैं हिंदी फिल्मों के हीरो-हीरोइन जैसे देवी-देवता और भगत-माताजी की मंडली देख रहा हूं, वैसी तो मैंने अपनी युवावस्था में भी नहीं देखी थी. मंदिरों का निर्माण सत्तासीन राजनीतिक पार्टी में जाने जितना ही फायदेमंद व्यवसाय बन गया है.
कभी किसी शंकराचार्य का नाम भी नहीं सुना था. डेढ़-डेढ़ हजार रुपए भरकर उनकी पाद्यपूजा करने के लिए भक्तों की लंबी लाइन लगती है. हमारे सेक्युलर भारत की महिला प्रधानमंत्री उनके दर्शनों के लिए जाती हैं. चर्च, मस्जिदों की आय बड़ी तेजी से बढ़ रही है, और इससे हम विशिष्ट जाति अथवा पंथ के अनुयायी हैं, इस अहंकार के सिवा हमारे हिस्से में और कुछ भी नहीं आता. इस संपूर्ण सामाजिक वास्तविकता की ओर देखने पर प्रबोधन शब्द ही निरर्थक प्रतीत होने लगता है. कुर्सी जाने के भय से ग्रस्त नेता, धन-संपत्ति छिन जाने के डर से बेचैन धनवान तथा हमें असहाय देख कम से कम ईश्वर हमारी मदद के लिए आता है या नहीं, देखते हैं, ऐसा कहने वाले गरीब लोग, कुछ ऐसा ही दृश्य दिखाई दे रहा है. वैचारिक आधुनिकता का समाज को स्पर्श करता भी दिखाई नहीं देता. अंत में ऐसा प्रतीत होने लगता है कि यही सत्य है.
आपको ऐसा लगेगा कि मैंने यह सब कुछ मन की निराश अवस्था में लिखा है. मैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं मानता कि व्यक्तिगत जीवन में दुख को अपने साथ लेकर चलना चाहिए. कल मुझे खाने को मिलेगा या नहीं, और आज रात सोने के लिए जगह मिलेगी या नहीं, इस चिंता को लेकर जिस देश में लाखों लोग जी रहे हैं, वहां मेरे जैसे व्यक्तिगत ने व्यक्तिगत दु:ख शब्द का उच्चारण भी नहीं करना चाहिए, इस एहसास से मैं किसी भी प्रकार के व्यक्तिगत दु:ख को अपने चारों ओर घूमने नहीं देता. साहित्य, संगीत, नाटक आदि कलाओं में मंत्रमुग्ध होने और थोड़ा-बहुत दूसरों को मंत्रमुग्ध करने में जीवन बीत गया. उर्दू शायर के लहजे में यदि कहना हो तो आज तक जीवन की राह में कांटों से ज्यादा फूल ही मिले.
‘उपरा’, ‘बलुत’, ‘आठवणीचे पक्षी’ आदि किताबों जैसा कुछ पढ़ने पर हमारा जीवन सामाजिक दृष्टि से असंगत प्रतीत होने लगता है. और जब कोई सम्मान देने लगता है तो शर्मिंदगी महसूस होने लगती है.