*धरने पर चिंतन (हास्य व्यंग्य)*
धरने पर चिंतन (हास्य व्यंग्य)
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पुराने जमाने की बात और थी ।जब लोग जब मन चाहा , धरने पर धर से बैठ गए। न आव देखा , न ताव ।जहाँ बैठे, उसी को धरना मान लिया जाता था। फिर जब समस्या का समाधान हो गया, तो उठ गए अर्थात धरना समाप्त हो गया। आजकल धरना एक इवेंट मैनेजमेंट की तरह आयोजित किया जाता है। बहुत सजधज के साथ धरने का आयोजन होता है और वह तब तक चलता है, जब तक के लिए उसे प्रायोजित किया जाता है। कितनी भी माँगें मानते रहो, समझाते रहो, सुनते रहो लेकिन धरना टस से मस नहीं होगा । वह शुरू हुआ है तो चलेगा। जितने दिन चलना है , उतने दिन ही चलेगा। आप कुछ भी करते रहो।
धरने के मामले में अब नियमावली बनाने की आवश्यकता जान पड़ती है। मेरे ख्याल से यह नियम होना चाहिए कि जो धरने पर बैठे , वह अपना रजिस्ट्रेशन कराए और सरकार को रजिस्ट्रेशन- शुल्क दे। प्रतिदिन के हिसाब से फीस जमा होनी चाहिए । साप्ताहिक या मासिक अथवा वार्षिक धरने पर बैठने की दृष्टि से फीस में छूट का प्रावधान भी होना चाहिए । यह नहीं कि जब मन में आया,मुफ्त में बैठ गए। जिसे देखो धरने पर चला आ रहा है। जितने दिन चाहे बैठा हुआ है । नहीं यह नहीं चलेगा । सरकार की आमदनी का एक बड़ा स्रोत धरना- शुल्क हो सकता है ।
तो, धरना रजिस्टर तैयार होना चाहिए जो इस बात की सारी जानकारियाँ रखे कि कितने लोग किस-किस जगह पर कितने- कितने दिन तक धरने पर बैठे ।धरने से प्राप्त जो आमदनी है , वह धरने के बारे में पीएचडी कराने पर खर्च होनी चाहिए अर्थात जो लोग धरने पर पीएचडी करें , उनको उस धनराशि से वजीफा मिलता रहे ।
धरने के बारे में कुछ कोर्स भी विश्वविद्यालयों में शुरू किए जा सकते हैं, जिसमें 1 साल का डिप्लोमा कोर्स तथा 2 साल का डिग्री कोर्स हो सकता है। इसमें धरने की बारीकियों के बारे में छात्रों को पढ़ाया जाए ताकि वह धरना- एक्सपर्ट बन सकें। इससे धरने की कई- कई प्रकार की श्रेणियाँ बनेंगी। धरने की सजावट में और बुनावट में निखार आएगा तथा धरना कब और कहाँ करना चाहिए तथा उसको कितने दिन में किस प्रकार से प्रभावी बनाया जा सकता है, इसके बारे में विश्वविद्यालयों में कक्षाओं में जब पढ़ाया जाएगा ,तब इस बारे में जागरूकता बढ़ेगी। जो लोग धरने पर बैठ चुके हैं ,उनको विशेष रुप से अपना लेक्चर देने के लिए स्थान- स्थान पर धरने की डिग्री कक्षाओं में बुलाया जा सकता है । वह अपने अनुभव के आधार पर ज्ञान को बाँटेंगे । उनसे सवाल-जवाब होंगे तथा स्थानीय स्तर पर एक धरना- शॉप भी खोली जा सकती है अर्थात ऐसी दुकान जो धरने से संबंधित सारे काम लोगों का करे।
धरने में बहुत सी चीजें देखनी पड़ती है। सबसे पहली बात तो यह है कि दरी- चाँदनी पर धरना हो या कुर्सियों पर ? आजकल सब लोग दरी पर जमीन पर नहीं बैठ सकते । इसलिए मेरे ख्याल से कुर्सियों का इंतजाम प्रचुर मात्रा में होना चाहिए । लाउडस्पीकर जितने ज्यादा होंगे , उतना ही धरना दूर तक फैलेगा। कुछ चाट पकौड़ी आदि का इंतजाम अगर मुफ्त में हो जाए, तब तो क्या कहने ! लेकिन अगर ऐसा नहीं हो पा रहा है तो कम से कम कुछ ठेले वालों को तो बुलाना ही पड़ेगा ताकि अगर लंबा खींचना है तो धरने को पिकनिक स्पॉट के रूप में विकसित करना आवश्यक हो जाता है। धरने पर कुछ भजन कीर्तन या इसी प्रकार का जैसा भी माहौल उचित लगे ,कुछ ऐसा इंतजाम होना चाहिए कि जिससे लोग आनंदपूर्वक बैठे रह सकें।
जो लोग धरने पर बैठे हैं, उनको प्रतिदिन शाल ओढ़ाकर सम्मानित करना भी बहुत जरूरी है । यह जरूरी नहीं है कि शाल उनको दे दिया जाए । सौ लोगों को आज शाल ओढ़ाया ,वही शाल रोजाना सौ लोगों को आप ओढ़ा सकते हैं तथा इस तरह से सौ शाल में आप कई साल तक धरने पर बैठे हुए लोगों को सम्मानित करते रह सकते हैं। धरने अब लंबे चला करेंगे, इसलिए वार्षिक या पंचवर्षीय योजनाएँ बनाने से ही काम चलेगा । मामला गहराई से चिंतन करने का है। चिंतन करने का मेरा फर्ज था ,सो मैंने धरने पर कर दिया।
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लेखक : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
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