द पॉपकॉर्न
डलिया में मकई ले करके
भड़भूजे के घर जाते थे।
मकई के दाने भुन करके,
ढेरों लावे बन जाते थे।
कुछ खाते थे,बिथराते थे,
कुछ नभ की ओर उड़ाते थे।
बाकी जो ठोर्री बच जाती,
वो गईया को दे आते थे।
जहाँ जाओ लावा वहीँ पर था,
इम्युनिटी का चक्कर कहीं न था।
खूब खाते थे इठलाते थे,
जीवन मे मौज मनाते थे।
बदली है रीत,समय बदला,
लावा बन गया अब पॉपकॉर्न।
दस रुपये में है दस दाना,
थियेटर ने खाते शान मान।
दौड़ती जिंदगी भाग रही,
न समय रहा खुशी रही।
गुम हुई हसीं गुम है मुस्कान,
पैकेट में बंद है पॉपकॉर्न।
सतीश शर्मा, सृजन, लखनऊ।