द्विराष्ट्र सिद्धान्त के मुख्य खलनायक
“कभी-कभी मेरे मन में सवाल उठता है कि अगर वारसा जैसी सख्त संधि जर्मनी पर न थोपी गई होती, तो शायद हिटलर पैदा नहीं होता! यदि हिन्दू-मुस्लिम एकता वाले ऐतिहासिक ‘लखनऊ समझौते’ को किसी भी शक्ल में संविधान में समाहित कर लिया गया होता, तो शायद देश का बंटवारा नहीं होता!” भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी जी का यह कथन मुझे विचलित करता है। यह वाक्य उन्होंने तब कहा था, जब 2005 ई. में वह मनमोहन सरकार में रक्षामंत्री थे। प्रोफेसर ए. नंद जी द्वारा लिखित ‘जिन्नाह—अ करेक्टिव रीडिंग ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ नामक किताब के लोकार्पण का यह शुभ अवसर था।
अपने विद्यार्थी जीवन के शुरूआती दिनों से ही मेरी रूचि साहित्य और इतिहास में रही है। मोदीकाल तक आते-आते मेरी उम्र 50 के क़रीब पहुँच चुकी है। ‘द्विराष्ट्र सिद्धान्त’ के मुख्य खलनायक और पाकिस्तान निर्माण के ये चार प्रमुख जनक हैं। इसमें प्रथम हैं—अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सय्यद अहमद खान। इसके द्वितीय नायक हैं—”सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा” जैसी अमर रचना करने वाले शा’इर मुहम्मद इक़बाल। इसके तृतीय क़िरदार हैं—चौधरी रहमत अली जिन्होंने एक पैम्फलेट (पर्चे) के रूप में “अभी या कभी नहीं; क्या हम हमेशा के लिए जीते हैं या नष्ट हो जाते हैं?”, जिसे “पाकिस्तान घोषणा” के रूप में भी जाना जाता है। और चतुर्थ चरित्र मुहम्मद अली जिन्नाह 1913 ई. में जिन्ना मुस्लिम लीग में शामिल हो गये और 1920 ई. में जिन्ना ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। शेष इतिहास सब जानते ही हैं कि 1947 ई. में 14 अगस्त को पाकिस्तान बना। इनकी जीवन भर की साधना का पुरस्कार ये मिला कि जिन्नाह पाकिस्तान के “राष्ट्रपिता” बने तो शाइर इक़बाल पाकिस्तान के “राष्ट्रीय शाइर”। दोंनो के जन्मदिवस पर पाकिस्तान में राष्ट्रीय अवकाश घोषित है। खैर शुरू करते है पहले पाकिस्तान के समर्थन में पहले खलनायक यानि नायक से:—
1. सय्यद अहमद ख़ान (जीवनकाल: 17 अक्टूबर 1817 ई.—27 मार्च 1898 ई.)
1857 ई. के अंग्रेजी गदर (अर्थात भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम) के महज़ दस वर्षों पश्चात ही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मुख्य संस्थापक सय्यद अहमद ख़ान (जिन्हें अंग्रेज़ों ने सर की उपाधि दी थी।) ने हिन्दी–उर्दू विवाद के चलते 1867 ई. में सबसे पहले ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ (two-nation theory) को पेश किया था। इस सिद्धांत की सरल परिभाषा के अनुसार न केवल भारतीय उपमहाद्वीप की संयुक्त राष्ट्रीयता के सिद्धांत को अप्रतिष्ठित किया गया बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के हिन्दूओं तथा मुस्लमानों को दो विभिन्न राष्ट्र भी क़रार दे दिया गया। यहाँ मुख्य रूप से 1860 ई. के दशक के अंतिम वर्षों का घटनाक्रम उनकी गतिविधियों का रुख़ बदलने वाला सिद्ध हुआ। उन्हें 1867 ई. में हिन्दुओं की धार्मिक आस्थाओं के केंद्र, गंगा तट पर स्थित बनारस (वाराणसी) में स्थानांतरिक कर दिया गया। लगभग इसी दौरान मुसलमानों द्वारा पोषित भाषा, उर्दू के स्थान पर हिन्दी को लाने का आंदोलन शुरू हुआ।
इस आंदोलन तथा साइंटिफ़िक सोसाइटी के प्रकाशनों में उर्दू के स्थान पर हिन्दी लाने के प्रयासों से सैयद को विश्वास हो गया कि हिन्दुओं और मुसलमानों के रास्तों को अलग होना ही है। अतः उन्होंने इंग्लैंड की अपनी यात्रा 1869 ई.—1870 ई. के दौरान ‘मुस्लिम केंब्रिज’ जैसी महान शिक्षा संस्थाओं की योजना तैयार कीं। उन्होंने भारत लौटने पर इस उद्देश्य के लिए एक समिति बनाई और मुसलमानों के उत्थान और सुधार के लिए प्रभावशाली पत्रिका तहदीब-अल-अख़लाक (सामाजिक सुधार) का प्रकाशन प्रारंभ किया। हालाँकि 27 मार्च 1898 ई.को सय्यद अहमद ख़ान की मृत्यु हो गयी थी लेकिन सैयद के रोपे गए मुस्लिम राजनीति के बीज के फलस्वरूप सैयद की परंपरा आगे चलकर मुस्लिम लीग (1906 ई. में स्थापित) के रूप में उभरी।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885 ई. में स्थापित) के विरुद्ध उनकी आम धारणा थी कि कांग्रेस हिन्दू आधिपत्य पार्टी है और उनका यह प्रोपेगंडा आज़ाद-पूर्व भारत के मुस्लिमों में जीवित रहा। इनकी कृतियों में इनके विचार पता चलते हैं:— 1.) “अतहर असनादीद” (उर्दू, 1847); 2.) “असबाबे-बगावते-हिंद (उर्दू, 1859)।; 3.) आसारुस्सनादीद (दिल्ली की 232 इमारतों का शोधपरक ऐतिहासिक परिचय)। गार्सां-द-तासी ने इसका फ़्रांसीसी भाषा में अनुवाद किया जो 1861 ई. में प्रकाशित हुआ। 4.) पैग़ंबर मुहम्मद साहब के जीवन पर लेख (उर्दू, 1870) जिसका उनके पुत्र के द्वारा एस्सेज़ ऑन द लाइफ़ ऑफ़ मुहम्मद शीर्षक से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया गया। साथ ही उनके बाइबिल तथा क़ुरान पर उर्दू भाषा में टीकाएँ सम्मिलित है।
2. शा’इर मुहम्मद इक़बाल (जीवनकाल: 9 नवम्बर 1877 ई.–21 अप्रैल 1938 ई.)
कहने को आज भी इन्हें अविभाजित भारत का प्रसिद्ध कवि, नेता और दार्शनिक कहा जाता है लेकिन ये पाकिस्तान निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाले दूसरे बड़े खलनायक थे। बेशक़ उर्दू और फ़ारसी में इक़बाल की शायरी को आधुनिक काल की सर्वश्रेष्ठ शायरी में गिना जाता है। इकबाल के दादाजान श्री सहज सप्रू (हिंदू कश्मीरी ब्राह्मण) थे, जो बाद में सिआलकोट में बस गए थे।
यूरोप में अध्ययन और मस्जिद कॉर्डोबा में अज़ान देने के बाद शा’इर इक़बाल ने व्यावहारिक राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू किया तो यह कटटर इस्लामिक राजनीतिक विचारधारा सामने लाए। 1930 ई. में इलाहाबाद में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के इक्कीसवीं वार्षिक बैठक की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने न केवल “द्विराष्ट्र सिद्धांत” के विषय की जटिलता को खुलकर समझाया बल्कि इसी सिद्धांत के आधार पर उन्होंने हिन्दुस्तान में एक मुस्लिम राज्य की पूरी रूपरेखा प्रस्तुत की; पाकिस्तान निर्माण की भविष्यवाणी भी की।
इकबाल ने पाकिस्तान: एक मुस्लिम राष्ट्र हेतु अपनी बात पर पुख्ता ज़ोर देते हुए कहा, “हम सब मुसलमान पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत को एक देखना चाहते हैं। समूचे सिंध व बलूचिस्तान को मिलाकर एक अलग राज्य बना दिया जाना चाहिए। ब्रिटिश साम्राज्य के बिना उत्तर-पश्चिम भारतीय मुस्लिम राज्य का गठन हमें कम से कम उत्तर-पश्चिम भारत के मुसलमानों के लिए अति आवश्यक प्रतीत होता है।” इकबाल मुस्लिम लीग के कट्टर समर्थक और कांग्रेस विरोधी थे। मौलाना थानवी की तरह इकबाल भी प्रसिद्ध देवबंदी मौलवी थे। इकबाल का मानना था कि कांग्रेस की विचारधारा से जुड़े उलेमा, मौलाना आदि धार्मिक गुरू हिंदुओं का समर्थन करके बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं और इसके परिणाम हम सब मुस्लिमों के लिए घातक सिद्ध होंगे।
भारतीय मुस्लिम लीग के 21 वें सत्र में ,उनके अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने इस बात का उल्लेख किया, जो 29 दिसंबर 1930 ई. को इलाहाबाद में आयोजित हुई थी। भारत के विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना के मूल विचार को सबसे पहले इक़बाल ने ही उठाया था। 1930 में इन्हीं के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने सबसे पहले भारत के विभाजन की माँग उठाई। इसके बाद इन्होंने जिन्ना को भी मुस्लिम लीग में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और उनके साथ पाकिस्तान की स्थापना के लिए काम किया हालाँकि 21 अप्रैल 1938 ई. में इनकी मृत्यु हो गई थी। किन्तु पाकिस्तान के लिए किये गए इनके कार्यों और योगदान के कारण इन्हें पाकिस्तान में राष्ट्रकवि का सम्मान दिया गया।
इन्हें अलामा इक़बाल (विद्वान इक़बाल), मुफ्फकिर-ए-पाकिस्तान (पाकिस्तान का विचारक), शायर-ए-मशरीक़ (पूरब का शायर) और हकीम-उल-उम्मत (उम्मा का विद्वान) भी कहा गया है। इनकी कृतियों में इनके विचार पता चलते हैं:— “इल्म उल इकतिसाद” 1903 ई. में प्रकाशित इक़बाल का एकमात्र उर्दू गद्य संग्रह है। “बांग-ए-दरा” 1924 ई.; “बाल-ए-जिब्रील” 1935 ई.; “ज़र्ब-ए-कलीम” 1936 ई. में प्रकाशित उर्दू में कविता पुस्तकें हैं।
3. चौधरी रहमत अली (जीवनकाल: 16 नवंबर, 1897 ई.—3 फ़रवरी 1951 ई.)
द्विराष्ट्र सिद्धान्त के आधार पर पाकिस्तान के नाम को सुझाने वाले तीसरे खलनायक रहमत अली एक मुस्लिम गुर्जर परिवार में पैदा हुए थे और पाकिस्तान राज्य गठन के सबसे पहले समर्थको में से एक थे। अली को दक्षिण एशिया में एक अलग मुस्लिम देश के लिये “पाकिस्तान” नाम बनाने का श्रेय दिया जाता है और आम तौर पर इसके निर्माण के लिये आंदोलन के संस्थापक के रूप में जाना जाता है।
जबकि एक उपवाद है। यहाँ इतिहासकार अकील अब्बास जाफिरी ने तर्क दिया है कि “पाकिस्तान” नाम का आविष्कार एक कश्मीर पत्रकार, गुलाम हसन शाह काज़मी ने 1 जुलाई, 1928 ई. को किया था, जब उन्होंने एबटाबाद में सरकार के समक्ष एक आवेदन दिया था जिसमें एक साप्ताहिक समाचार पत्र “पाकिस्तान” प्रकाशित करने की मंजूरी मांगी गई थी। . यह संभवत: पहली बार था जब उपमहाद्वीप में पाकिस्तान शब्द का प्रयोग किया गया था। कहा जाता है कि चौधरी रहमत अली 1933 ई. में स्वतंत्र मुस्लिम राज्य का नाम पाकिस्तान के रूप में सुझा रहे थे, गुलाम हसन शाह काज़मी द्वारा अपने अखबार के लिए नाम अपनाने के 5 साल बाद।
ख़ैर, रहमत अली का मौलिक योगदान तब था जब वह 1933 ई. में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में कानून के छात्र थे, एक पैम्फलेट (पर्चे) के रूप में “अभी या कभी नहीं; क्या हम हमेशा के लिए जीते हैं या नष्ट हो जाते हैं?”, जिसे “पाकिस्तान घोषणा” के रूप में भी जाना जाता है। पैम्फलेट को लंदन में तीसरे गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश और भारतीय प्रतिनिधियों को संबोधित किया गया था। हालाँकि अली के विचारों को प्रतिनिधियों या किसी भी राजनेता के साथ करीब एक दशक तक समर्थन नहीं मिला। उन्हें छात्रों के विचारों के रूप में खारिज कर दिया गया था। लेकिन 1940 ई. तक, उपमहाद्वीप में मुस्लिम राजनीति ने उन्हें स्वीकार कर लिया, जिसके कारण अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का लाहौर प्रस्ताव आया, जिसे तुरंत प्रेस में “पाकिस्तान प्रस्ताव” करार दिया गया।
पाकिस्तान के निर्माण के बाद, अली अप्रैल 1948 ई. में इंग्लैंड से लौटे, देश में रहने की योजना बना रहे थे, लेकिन उनका सामान जब्त कर लिया गया और उन्हें प्रधान मंत्री लियाकत अली खान ने निष्कासित कर दिया। अक्टूबर 1948 ई. में अली खाली हाथ चले गए। 3 फरवरी 1951 ई. को कैम्ब्रिज में उनका निधन हो गया। दिवालिया अली के अंतिम संस्कार का खर्च इमैनुएल कॉलेज, कैम्ब्रिज ने अपने मास्टर के निर्देश पर किया था। अली को 20 फरवरी 1951 ई. को कैम्ब्रिज सिटी कब्रिस्तान में दफनाया गया था।
4. मुहम्मद अली जिन्नाह (जीवनकाल: 25 दिसम्बर 1876 ई. — 11 सितम्बर 1948 ई.)
पाकिस्तान के मुख्य खलनायक के रूप में सीधे-सीधे जिन्नाह को जाना जाता है। ये बीसवीं सदी के एक प्रमुख राजनीतिज्ञ थे। जिन्हें पाकिस्तान के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। वे मुस्लिम लीग के नेता थे जो आगे चलकर पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल बने। पाकिस्तान में, उन्हें आधिकारिक रूप से क़ायदे-आज़म यानी महान नेता और बाबा-ए-क़ौम यानी राष्ट्र पिता के नाम से नवाजा जाता है। उनके जन्म दिन पर पाकिस्तान में अवकाश रहता है।
मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 ई. में हुई। शुरु-शुरू में जिन्ना अखिल भारतीय मुस्लिम लीग में शामिल होने से बचते रहे, लेकिन बाद में उन्होंने अल्पसंख्यक मुसलमानों को नेतृत्व देने का फैसला कर लिया। 1913 ई. में जिन्ना मुस्लिम लीग में शामिल हो गये और 1916 ई. के लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता की। 1916 ई. के लखनऊ समझौते के कर्ताधर्ता जिन्ना ही थे। यह समझौता लीग और कांग्रेस के बीच हुआ था। कांग्रेस और मुस्लिम लीग का यह साझा मंच स्वशासन और ब्रिटिश शोषकों के विरुद्ध संघर्ष का मंच बन गया। 1920 ई. में जिन्ना ने कांग्रेस के इस्तीफा दे दिया। इसके साथ ही, उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि गान्धीजी के जनसंघर्ष का सिद्धांत हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन को बढ़ायेगा कम नहीं करेगा। उन्होंने यह भी कहा कि इससे दोनों समुदायों के अन्दर भी ज़बरदस्त विभाजन पैदा होगा।
मुस्लिम लीग का अध्यक्ष बनते ही जिन्ना ने कांग्रेस और ब्रिटिश समर्थकों के बीच विभाजन रेखा खींच दी थी। मुस्लिम लीग के प्रमुख नेताओं, आगा खान, चौधरी रहमत अली और मोहम्मद अल्लामा इकबाल ने जिन्ना से बार-बार आग्रह किया कि वे भारत लौट आयें और पुनर्गठित मुस्लिम लीग का प्रभार सँभालें। 1934 ई. में जिन्ना भारत लौट आये और लीग का पुनर्गठन किया। उस दौरान लियाकत अली खान उनके दाहिने हाथ की तरह काम करते थे। 1937 ई. में हुए सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली के चुनाव में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी और मुस्लिम क्षेत्रों की ज्यादातर सीटों पर कब्जा कर लिया। आगे चलकर जिन्ना का यह विचार बिल्कुल पक्का हो गया कि हिन्दू और मुसलमान दोनों अलग-अलग देश के नागरिक हैं अत: उन्हें अलहदा कर दिया जाये। उनका यही विचार बाद में जाकर जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त कहलाया।
विभाजन के अन्य कारण:—
1. 1916 ई. का लखनऊ समझौता या लखनऊ अधिवेशन
लखनऊ समझौता या लखनऊ अधिवेशन भारतीय आंदोलनकर्ताओं के दो दल थे। पहला था “नरम दल” और दूसरा गरम दल। यानि—उदारवादी गुट और उग्रवादी गुट! उदारवादी गुट के नेता किसी भी हालात में उग्रवादियों से कोई सम्बन्ध स्थापित करने के पक्ष में नहीं थे अतः राष्ट्रीय आंदोलन कमजोर हो गया था, इसलिए आंदोलन को सुदृढ़ करने के लिए दोनों दल के नेताओं को साथ लाने की आवश्यकता पड़ी। अतः डॉ. एनी बेसेंट ने लखनऊ समझौता या लखनऊ अधिवेशन का आयोजन बाल गंगाधर तिलक के साथ मिलकर 1916 ई. में किया। डॉ एनी बेसेन्ट (1 अक्टूबर 1847 ई.—20 सितम्बर 1933 ई.) अग्रणी आध्यात्मिक, थियोसोफिस्ट, महिला अधिकारों की समर्थक, लेखक, वक्ता एवं भारत-प्रेमी महिला थीं। अतः सन 1917 ई. में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षा भी बनीं।
ख़ैर लखनऊ समझौता (अधिवेशन) के दो मुख्य उद्देश्य थे, प्रथम गरम दल की वापसी व द्वितीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौता! मुख्यतः यह हिन्दू-मुस्लिम एकता को लेकर ही था। मुस्लिम लीग के अध्यक्ष जिन्नाह ने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन तथा जिन प्रान्तों में मुस्लिम अल्पसंख्यक थे, वहाँ पर उन्हें अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देने की मांग रखी थी, जो की कांग्रेसियों द्वारा सहर्ष स्वीकार कर ली गयी, लेकिन यह अंत में बेहद घातक सिद्ध हुई। इसी ने आगे चलकर विभाजन को जन्म दिया। इसे ही “लखनऊ समझौता” कहा जाता है।
मुस्लिम लीग के अध्यक्ष जिन्नाह भारतीय कांग्रेस के नेता भी माने जाते थे। पहली बार गांधी जी के “असहयोग आन्दोलन” का तीव्र विरोध किया और इसी प्रश्न पर कांग्रेस से जिन्नाह अलग हो गए। लखनऊ समझौता हिन्दु-मुस्लिम एकता के लिए महत्त्वपूर्ण कदम था परन्तु गांधी जी के ‘असहयोग आंदोलन’ के स्थगित होने के बाद यह समझौता भी भंग हो गया। इसके भंग होने के कारण जिन्नाह के मन में हिन्दू राष्ट्र के प्रेत का भय व्याप्त होना था। वो यह मानने लगे थे कि भारत को एक हिन्दू बहुल राष्ट्र बना दिया जाएगा! जिसमे मुसलमान को कभी भी उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा! इसके बाद जिन्ना एक नए मुसलमान राष्ट्र के घोर समर्थक बनता चला गया। जिन्नाह की जिद कहें या कठोर माँग थी कि आज़ादी के वक़्त जब ब्रिटिश सरकार सत्ता का हस्तांतरण करें, तो उसे हिंदुओं के हाथों कभी न सौपें, क्योकि इससे भारतीय मुसलमानों को हिंदुओं की ग़ुलामी करनी पड़ेगी। हमेशा उन्हें हिन्दुओं के अधीन रहना पड़ेगा!
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(आलेख संदर्भ व साभार: विकिपीडिया तथा आज़ादी आंदोलन से जुडी किताबों व घटनाओं से)