द्वंद का अंत
एक सफर पर चल पड़ी हूं मैं.. क्या यह सफर इतना आसान होगा? क्या इस सफर पर में मैं निरंतर इसी वेग से आगे बढ़ पाऊंगी ? अपने अस्तित्व को खोजने की जिद में, मैं इतनी दूर निकल आई कि पीछे मुड़कर देखना तो बस मौत ही है ! खुद को तलाशने का भी एक अलग ही मजा है; किंतु खोज पूरी होने के बाद उस व्यक्तित्व को संभाले रखना अलग बात है। क्या मैं सक्षम हूं कि मैं घर में मां के व्यक्तित्व में, और अपने कर्म स्थल पर एक शिक्षिका के व्यक्तित्व में, खुद को स्थिर और अडिग रख पाऊं? स्कूल से घर लौट कर, मन करता है कि नींद के आगोश में चली जाऊं; किंतु मातृत्व भावना सोने नहीं देती; मुझे अब अपने बच्चों की क्षुधा भी तो शांत करनी है , फिर घर के सभी काम निपटा कर सुबह फिर से अपने कर्म स्थल पर लौटने की भी तैयारी करनी है। मेरे मित्रों के यह कहने पर कि “तुम बीमार पड़ जाओगी, खुद का भी थोड़ा ध्यान रख लिया करो” तब कहीं ना कहीं मेरा मन भी यही सोचने लगता है कि क्या मैं सच में तो बीमार नहीं पड़ जाऊंगी?
मन के भीतर चल रहे इस द्वंद ने इतना उग्र रूप ले लिया कि मैं बेचैन होकर इन सवालों के जवाब तलाश ही रही थी कि एक दिन…..
कल का ही वाकया है आप सभी से साझा करना चाहूंगी… सुबह के करीब 4:45 बजे उठकर अपने बच्चों के लिए जलपान की व्यवस्था करके अपने पतिदेव की मोटरसाइकिल से मैं फेरी घाट पहुंची, घाट पार करके मेन रोड पर जाने के लिए ऑटो रिक्शा लिया । ऑटो से उतरकर जब स्कूल पहुंचने के लिए मैं बस का इंतजार कर रही थी; तभी एक बस के ड्राइवर जी ने मुझे देखकर बस को रोका, किंतु बस पूरी तरह से नहीं रुकी थी मंद गति से चल रही थी , बस के गेट पर कंडक्टर बाबू भी नहीं थे । वे टिकट काटने में व्यस्त थे। स्कूल जाने की जल्दी में इस बात की परवाह किए बिना ही मैं बस पर चढ़ी। बस पर चढ़ते ही ड्राइवर जी ने बस की रफ्तार बढ़ा ली। झटके से मेरी उंगलियों में चोट लग गई तभी कंडक्टर बाबू भी उपस्थित हो गए ; मैंने उन्हें थोड़ी नाराजगी भी दिखाई कि अगर वह अपनी जगह पर होते तो शायद मुझे संभलने का मौका भी मिलता। यह बात वही समाप्त हो गई, सहसा करीब 10 मिनट के बाद ही मैंने देखा कि एक वृद्धा जिसके कंधे पर एक झोला था और हाथ में एक छाता, वह अपने कांपते हाथों से, कंडक्टर बाबू की सहायता लेते हुए बस पर चढ़ी और मेरे ही बगल में बैठी ; यह देखकर मेरे मन के अंदर चल रहा द्वंद अचानक ही शांत हो गया। मेरे मनोभाव ही बदल गए, मैं सोचने लगी कि कितना कठोर है यह जीवन ! जिजीविषा के लिए संघर्ष हर मोड़ पर, हर उम्र में, हर दशा में करना ही पड़ता है। वृद्धा के कांपते हाथों ने मुझे यह समझा दिया कि “शारीरिक असमर्थता भी मानसिक समर्थता के सामने परस्त है।” मुझे अब अपने सभी प्रश्नो के प्रत्यक्ष उत्तर मिल चुके थे।
– ज्योति✍️