द्यूत न खेलो धर्मराज
है अधर्म का मार्ग विनाशक
पूर्ण सत्य किवदंती।।
द्यूत न खेलो धर्मराज यह
चाल शकुनि की गहरी।।
अपने रुधिर स्वेद से तुमने
बंजर धरती सींची।
उनकी लघुरेखा के सम्मुख
रेखा लम्बी खींची।
दाह रहा है हृदय धूर्त का
यह फाल्गुन बासंती।।
ज्यों शीतल ऋतु गाँव तुम्हारे,
उसको जेठ -दुपहरी।।
सक्षम इतना कौन समक्ष
तुम्हारे रण में ठहरे।
कायर षड्यंत्रों के बल पर
देखे स्वप्न सुनहरे।
रक्षा करें सभी की जिनके
कंठ माल बैजयंती।।
असंतुष्टि की दुष्ट- दृष्टि अब
इन्द्रप्रस्थ पर ठहरी।।
द्यूत मित्रता आज, फेंकती
मंत्राच्छादित पासे।
हर लेती सर्वस्व मित्र से
हाँथ थमाती काँसे।
बिगड़ी रुचती, बनती दिखती
तभी शत्रुता ठनती।
वही बचा है दूरदृष्टि
जिसके अंतस की प्रहरी।।
संजय नारायण