दो मुक्तक
1
मुद्दत से गुलजार सजाये बैठे हैं।
आखों में उम्मीद जगाये बैठे हैं।
शायद इस गुल पर भी आ बैठे तितली।
हर तितली पर आँख जमाये बैठे हैं।
2
आशिकी कैसी कहानी हो गयी।
कोई सूरत मुँहजुबानी हो गयी।
फासले जब से बढे हैं दर्मियां।
रूह तनहा आंख पानी हो गयी।
अंकित शर्मा ‘इषुप्रिय’
रामपुर कलाँ, सबलगढ(म.प्र.)