दो मुक्तक
जन्मों-जनम् का प्यासा मुझको भी प्यार देदे।
हो जाऊँ तृप्त ऐसी शीतल फुहार देदे
।
मंडराते शोख़ भवरे कलियों से जो भी चाहें।
मुझको भी आज रस वो जाने-बहार देदे।
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कली के फूल बनने में चमन का भी सहारा है।
करे रसपान फूलों का वो इक भंवरा कुँवारा है।
प्रकृति की अनौखी रस्म है आधार सृजन का।
कभी है स्वाद में मीठा कभी नमकीन-खारा है।
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