दो मुक्तक ….
हमें है आन झंडे की, इसे ऊँचा उठाएँगे।
बनेंगे आत्मनिर्भर हम, सभी के काम आएंँगे।
हमारी संस्कृति है क्या, बताएँगे जमाने को,
कुटुंबी सब धरा वासी, अलख जग में जगाएँगे।१।
हुनर मेरा कभी मुझसे, नहीं वो छीन पाएँगे।
गुँथे मन-भाव में मुक्तक, कहाँ तक बीन पाएँगे ?
नहीं वो ताव आएगा, न संगत बैठ पाएगी,
लुटेरे चोर महफिल में, खुदी को दीन पाएँगे।२।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
साझा काव्य संग्रह “काव्य सागर” से