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22 Mar 2024 · 1 min read

दो पंक्तियां

थी आरज़ू मुकम्मल इश्क की हमें,
है ग़म की मुंतशिर भी हो ना पाए,,

दस्तक दी है, दरवाजे पर किसी ने फिर,
इतनी रात में अब बाहर कौन जाए,,

गला काटने के बाद मांगी माफी उसने,
कमबख़्त हम थे जो माफ़ भी कर नहीं पाए,,

इश्क कुर्बानी मांगती है शाश्वत,
हम भिखारी भाव भी दे नहीं पाए,,

शहर की बेबसी में क्यूं जला रहे खुद को,
छांव बहुत है गांवों में,चलो चला जाए,,

~ विवेक शाश्वत ✍️

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