दो कौड़ी की कविताएं
दो कौड़ी की कविताये मैं लिखता हूँ।
खुद भी तो मैं दो कौड़ी का दिखता हूँ।
दो कौड़ी का व्यक्तिव मेरा।
दो कौड़ी का अस्तित्व मेरा।
दो कौड़ी की है गात मेरी।
दो कौड़ी की औकात मेरी।
दो कौड़ी ही तनख्वाह मेरी।
दो कौड़ी ही परवाह मेरी।
दो कौड़ी रोज कमाता हूँ।
दो कौड़ी में इतराता हूँ।
कपड़ा हूँ मिट्टी सुतली हूँ।
दो कौड़ी का कठपुटली हूँ।
उंगली पर डोर घुमाता वो।
अपनी मर्जी से लिखाता वो।
है कलाकार ऊपर वाला।
जड़ चेतन सबका रखवाला।
है हुनर दिया मुझको जिसने,
औकात नहीं देखा उसने।
वह यहां वहाँ का खालिक है।
दोनों जहान का मालिक है।
उसकी दो कौड़ी इतनी है।
सम्राट हैशियत जितनी है।
दो कौड़ी में खुश रहता हूँ।
शुकराना उसका कहता हूँ।
मेरा मुरशिद दया समंदर का,
मैं तट का कण भर सिक्ता हूँ।
दो कौड़ी की कविताये मैं लिखता हूँ ।
खुद भी तो मैं दो कौड़ी का दिखता हूँ।
सतीश शर्मा सृजन, लखनऊ.