दोहे
नगर नगर में हैं खुली शिक्षा की दूकान।
डिग्री ऐसे विक रही जैसे बीड़ी पान।
जिन्दा मुर्दा हो कोई सबको मिले प्रवेश।
भारीभरकम फीस है जैसे अध्यादेश।।
बीते पैंसठ साल में यह है किसकी भूल।
नया खुला ना एक भी सरकारी स्कूल।।
हुए रिटायर मास्टर बन गए शिक्षामित्र।
नीरज शिक्षक कला के बने न बकरिक चित्र।।
जनता को धोखा मिला सबदिन बारम्बार।
सत्ता लोभी शाशको तुमको है धिक्कार।।
हिंदुस्तान 25 जनवरी प्रकाशित
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नेता जी पर्चा भरै, नीरज पूछै बात।
कितनी नगदी पास है,कितनी है औकात।।
कितनी गाड़ी आपकी, कितनी है बंदूक।
कितना सोना पास में,किसका है सन्दूक।।
पत्नी के जेवरात भी, हमको दो लिखवाय।
पाई पाई की रकम ,सारी दो जुड़वाय।।
सेवा करन समाज की,आतुर नेता लोग।
पन्द्रह दिन की चांदनी ,भोग सके तो भोग।।
प्रकाशित हिंदुस्तान 26 जनवरी को