दोहे
शीर्षक – हवा चली संक्रांति की
विधा – दोहा
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हवा चली संक्रांति की, नभ में उड़े पतंग।
ढोल नगाड़े बज उठे,जमा गजब का रंग।।
हवा चली संक्रांति की,सरसों हुई जवान।
बाग बगीचे खिल उठे , भँवरे करते गान।।
देख आपसी प्रेम को ,कुदरत भी है दंग।
हवा चली संक्रांति की,खिले निराले रंग।।
हवा चली संक्रांति की,ठिठुर रहा है गात।
कुहरा भी गहरा गया , हुई दिवस में रात।।
सरसों पीली हो गई, रौनक है चहुँओर।
नभ में छाई लालिमा,हुआ मनोहर भोर।।
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अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा